अनिल अनूप
यकीन नहीं होता कि केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान अब हमारे बीच नहीं रहे। उनका पार्थिव शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो चुका है। जिंदगी के 74 पायदान पार किए और फिर अंतिम यात्रा पर चल दिए। शायद जीवन का दर्शन यही है! अब पासवान स्मृतियों में हैं। जब तक विभिन्न दलित आंदोलन उभरते रहेंगे, किसी दलित सरोकार और समस्या की चर्चा होगी, नौबत दलित अस्मिता तक आ जाएगी, तो पासवान का संदर्भ जरूर आएगा। कोई भी ‘सौदागर’ उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकता। यह उनकी प्रतिबद्धता का उपसंहार है। वह उस दौर में दलितों की आवाज और भूमिका बने, जब देश की राजनीति में कांशीराम और मायावती ही दलितों के बड़े नेतृत्व माने जाते थे। कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की और राष्ट्रीय दल का दर्जा और पहचान दिलाई। हालांकि पासवान ने बिहार में ही दलित राजनीति को मजबूती दी और उसे विस्तार भी दिया। दलितों के लिए आरक्षण संविधान ने मुहैया कराया है, लेकिन पदोन्नति और विभिन्न स्तरों पर भी आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए, उन्होंने यह आवाज बार-बार संसद में उठाई। पासवान का शुरुआती राजनीति से ही यह सूत्र-वाक्य था-‘‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी का हो, बिरला या गरीब की संतान हो, सबकी शिक्षा एक समान होनी चाहिए।’’ इसी के आधार पर पासवान जिंदगी भर लड़ते रहे। आज पासवान जीवित रूप में मौजूद नहीं हैं, लेकिन प्रेस और पत्रकारों के वह ‘प्रिय’ थे। उन्होंने हमेशा लोकतंत्र को प्राथमिकता दी और प्रेस को लोकतंत्र का ‘प्राण’ माना। यकीनन पासवान कई इतिहास रचकर और कइयों की पूर्व पीठिका लिख कर ‘महायात्रा’ पर गए हैं। 1975 में आपातकाल के दंश उन्होंने भी झेले थे, लिहाजा 1977 के लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक वोट हासिल कर वह बिहार के हाजीपुर से जीते। अपने पहले ही संसदीय चुनाव में पांच लाख से अधिक मतों से जीतने का विश्व कीर्तिमान गिनीज बुक में दर्ज किया गया। शायद वह कीर्तिमान आज भी पासवान के नाम हो! ऐसी जीत उनकी लोकतांत्रिक और राजनीतिक लोकप्रियता को सत्यापित करती है। वह कुल आठ बार लोकसभा सांसद चुने गए और दो बार राज्यसभा में रहे। फिलहाल वह उच्च सदन के सदस्य थे। भारतीय राजनीति में उन्होंने करीब 50 साल की सक्रियता निभाई। बेशक बिहार की राजनीति में वह जातीय समीकरणों की सियासत के शिकार होते रहे, लेकिन वह दलितों का ऐसा राष्ट्रीय चेहरा जरूर बने, जिसकी मौजूदगी और सहयोग तीन दशकों तक विभिन्न प्रधानमंत्रियों को महसूस होता रहा। पासवान विश्वप्रताप सिंह, देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और डा. मनमोहन सिंह सरीखे प्रधानमंत्रियों की सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाए जाते रहे। प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदा सरकार में भी पासवान खाद्य मंत्री थे। विभिन्न सरकारों में रेल, सूचना-प्रसारण, रसायन एवं उर्वरक, कोयला एवं खनिज मंत्रालयों का उन्होंने नेतृत्व किया और अपनी सामाजिक, सार्वजनिक छवि पर कालिख की एक लकीर तक नहीं लगने दी। जीवन बड़ा छोटा और सीमित होता है, क्योंकि ऐसे व्यक्तित्व के लक्ष्य बड़े और बहुआयामी होते हैं, लिहाजा पासवान के कई लक्ष्य छूट भी गए होंगे! बहरहाल 2000 में उन्होंने लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की स्थापना की, लेकिन वह बिहार के कुछ क्षेत्रों से बाहर नहीं निकल पाए। यहां तक कि उप्र, मप्र, हरियाणा, पंजाब और फिर दक्षिण भारत में दलितों का एक मजबूत और स्वीकार्य मंच तैयार नहीं कर पाए। आज कांशीराम भी हमारे बीच नहीं हैं। मायावती की राजनीति भी अवसान की ओर है। कभी देश के बेहद कद्दावर दलित नेता रहे जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार का भी राजनीतिक सूर्यास्त हो चुका है। वह लोकसभा की स्पीकर भी रहीं। भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर ही दलित नेतृत्व का वर्तमान लगते हैं, लेकिन उनकी छवि विवादास्पद और संदिग्ध नेता की ज्यादा है। उनके विस्तार और सार्वजनिक स्वीकार्यता का दौर भी अभी देखा जाना है, लिहाजा दलित नेतृत्व में एक बड़े शून्य की स्थिति है, जो पासवान के चले जाने से और बढ़ेगी। फिलहाल उनकी विरासत सांसद-पुत्र चिराग पासवान के जिम्मे है, लेकिन बिहार चुनाव के मद्देनजर वह अभी जनता की कसौटी पर हैं। उनके दलित नेतृत्व का विश्लेषण किया जाता रहेगा। अलविदा पासवान…ओम् शांति…!