प्रधानमंत्री मोदी ने शाहीन बाग पर अपनी चुप्पी तोड़ी और ऐसे धरने-प्रदर्शनों पर गंभीर आरोप चस्पा किया। दूसरी ओर जामिया यूनिवर्सिटी के गेट नं. 5 के करीब रविवार की देर रात में गोलियां चलाई गईं। तीसरे, संसद में गोली की सियासत गूंजती रही और नारे लगाए गए-‘‘गोली मारना बंद करो….जहर घोलना बंद करो।’ देश गुस्से और उत्तेजना में हो सकता है कि आखिर यह परिदृश्य कब तक जारी रहेगा? कब तक गोलियां चलाई जाती रहेंगी और वह भी एक ही इलाके में…? प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली चुनाव में पहली बार उतरे तो सीलमपुर, जामिया, शाहीन बाग के धरने-प्रदर्शनों पर चुप्पी तोड़ते हुए उन्होंने कहा कि ये कोई संयोग नहीं, एक प्रयोग हैं। इनके पीछे देश के सौहार्द्र को खंडित करने के इरादों का एक राजनीतिक डिजाइन है। तिरंगा, संविधान की आड़ में राजनीतिक खेल चल रहा है। यदि यह कानून का ही विरोध होता, तो सरकार के आश्वासनों से धरने-प्रदर्शन समाप्त हो जाते। यदि इसे अभी नहीं रोका गया, तो किसी और शहर, इलाके के रास्ते पर भी बैठ जाएंगे।’’ यह प्रधानमंत्री के तीखे हमले का सारांश है। बेशक प्रधानमंत्री एक चुनावी जनसभा को संबोधित कर रहे थे, लेकिन प्रधानमंत्री के मुंह से निकले हरेक शब्द के मायने होते हैं। बेशक चुनावी राजनीति के संदर्भ में उन्होंने ‘आप’ और कांग्रेस पर आरोप लगाए हैं, लेकिन 50 से ज्यादा दिनों से जारी आंदोलन सिर्फ राजनीतिक नहीं हो सकता। और दिल्ली चुनाव में कांग्रेस तो लगभग गुमशुदा है और ‘आप’ के शीर्ष नेता एक बार भी शाहीन बाग नहीं गए हैं। सवाल है कि यदि शाहीन बाग के पीछे कोई ‘साजिशाना प्रयोग’ है, तो उसे कौन बेनकाब करके खंडित करेगा? उसे देश के अन्य इलाकों तक विस्तार पाने से कौन रोकेगा? यदि पाकिस्तान सरीखी किसी बाहरी ताकत का हाथ है, तो उसे तोड़ना किसका संवैधानिक और प्रशासनिक दायित्व है? दिल्ली देश की राजधानी है, कोई कबीलाई क्षेत्र नहीं है कि देर रात में एक केंद्रीय यूनिवर्सिटी के पास गोलियां चलें और हमलावर अंधेरे में ही भाग जाएं। पुलिस को अपराधियों का सुराग तक न मिले। दिल्ली की कानून-व्यवस्था केंद्र सरकार के अधीन है। खुफिया एजेंसियां एक-एक संवेदनशील जानकारी प्रधानमंत्री को मुहैया कराती रहती हैं। अभी 30 जनवरी को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर जामिया के पास ही किसी ‘रामभक्त’ ने गोली चलाई थी। इन परिस्थितियों को क्या समझा जाए? क्या प्रधानमंत्री को आगाह किया जाता रहा है अथवा जानबूझ कर परिस्थितियों को नजरअंदाज किया जाता रहा है? अब चुनाव सिर पर हैं, तो प्रधानमंत्री ने चुप्पी तोड़ी है, तो इसमें शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों के साथ संवाद की संभावनाएं भी निहित नहीं लगतीं और नागरिकता के विवाद पर सरकार किसी भी आशंका या अज्ञानता को तोड़ने के मूड में नहीं लगती। तो यह गतिरोध, मतिभ्रम कौन तोड़ेगा? शाहीन बाग के आंदोलन का निष्कर्ष क्या होगा? तकलीफ और दिक्कतें तो दिल्ली का आम नागरिक झेल रहा है। हम जानते हैं कि धरना देने वालों में से 95 फीसदी से ज्यादा लोगों ने न तो नागरिकता कानून की एक लाइन पढ़ी है और न ही संविधान का पन्ना पलट कर देखा है। पढ़ना तो बहुत दूर की बात है। धरने वाली जमात तिरंगे और वंदे मातरम् का विरोध करती रही है। लिहाजा आज यह सब कुछ सिर्फ आड़ है। सवाल तो यह है कि क्या इस मुद्दे पर हिंदू-मुसलमान की सियासत जारी रहेगी? सोमवार को संसद में जब इस विषय पर हंगामा मचा तो विभाजक स्थिति साफ दिखाई दी। कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन स्पष्ट बयान दे रहे थे कि ‘ये असली हिंदू नहीं हैं।’ क्या संसद का प्रयोजन सांप्रदायिक है? लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। हालांकि दिल्ली का चुनाव बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा सरीखे मुद्दों पर तय होगा, लेकिन सर्वे में सचाई सामने आ रही है कि 55-60 फीसदी लोगों ने शाहीन बाग को सबसे बड़ा मुद्दा माना है। क्या प्रधानमंत्री इन्हीं परिस्थितियों पर जनादेश तय कराने के पक्ष में हैं?