अनिल अनूप
कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलनरत किसानों और केंद्र सरकार के बीच संवादहीनता बेहद चिंताजनक है। दोनों ही पक्ष संवादहीनता के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री कह रहे हैं कि किसान अगली वार्ता की तिथि तय करें तो किसान कह रहे हैं कि सरकार के बुलाने पर वार्ता को तैयार हैं, पर बात तीनों कृषि कानून वापस लेने से ही शुरू होगी, जबकि संशोधनों को तैयार सरकार कानून वापसी से दो टूक इनकार कर चुकी है। आंदोलन के 17 वें दिन जयपुर-दिल्ली हाईवे बंद और हरियाणा के ज्यादातर टोल फ्री करने के बाद किसान अब 14 दिसंबर को एक दिन के उपवास और फिर 19 दिसंबर से अनिश्चितकालीन उपवास की बात कह रहे हैं। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत केंद्र सरकार की ओर से आंदोलन समाप्ति और बातचीत की अपील की जा रही है, लेकिन किसानों के तेवर कड़े होते दिख रहे हैं। कहना नहीं होगा कि दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़े हैं। सरकार कानून वापसी को तैयार नहीं है और किसान उसके बिना मानने को तैयार नहीं हैं। संवादहीनता भी दोनों पक्षों की इसी हठधर्मिता का परिणाम है, जबकि संवाद बिना किसी समस्या का समाधान संभव ही नहीं। इसलिए यह संवादहीनता हर हाल में टूटनी चाहिए। इस आंदोलन ने किसान राजनेताओं को भी बेनकाब कर दिया है। सत्ता सुख भोगने वाले स्वयंभू किसान नेता तो मौन हैं ही, विपक्षी नेता भी शाब्दिक समर्थन से ज्यादा कोई सकारात्मक भूमिका समाधान में नहीं निभा पाये हैं। जाहिर है, उनके लिए अपनी राजनीति सर्वोपरि है और किसान उनका मोहरा भर हैं। वे अपनी परास्त और पस्त राजनीति को किसान आंदोलन से नवजीवन तो देना चाहते हैं, पर व्यापक किसान हित में ठोस समाधान में कोई सकारात्मक पहल नहीं करना चाहते। किसान आंदोलन में संदेहास्पद तत्वों की सक्रियता की बाबत केंद्र सरकार को मिली खुफिया एजेंसियों की सूचनाएं अगर सही हैं, तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि हठधर्मिता छोड़ संवाद का सिलसिला शुरू हो। यह तभी संभव है, जब दोनों ही पक्ष इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने के बजाय व्यावहारिक समाधान की ईमानदार पहल करें। केंद्र सरकार स्वीकार भले ही न करे, पर उसे यह अहसास हो गया है कि किसानों से विचार-विमर्श किये बिना ही कृषि सुधार कानून बनाने में उससे चूक हुई है। कानूनों में संशोधन की सरकारी पेशकश यही संकेत देती है। एमएसपी और मंडी व्यवस्था पर भी केंद्र सरकार लिखित आश्वासन देने को तैयार है, लेकिन किसान तीनों कानून वापस लेकर उनसे विचार-विमर्श के बाद नये कानून बनाये जाने की मांग पर अड़े हैं। उनका आरोप है कि ये कानून किसानों के विरुद्ध और उद्योगपतियों के हित में हैं। जून में अध्यादेश और सितंबर में कानून बनाये जाने के बाद अगर दिसंबर में भी किसानों की यही राय है तो साफ है कि सरकार और सत्तारूढ़ दल उनकी आशंकाओं का निवारण कर इन कानूनों के फायदे समझाने में विफल रहे हैं। प्राकृतिक न्याय का भी तकाजा है कि जिस वर्ग के हित में कानून बनाने का दावा किया जा रहा है, उससे चर्चा तो अवश्य की जानी चाहिए। इसलिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये बगैर केंद्र सरकार को तीनों कानून वापस लेकर किसानों की राय से नये कानून बनाने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। कोरोना संकट और कड़ाके की सर्दी के बीच किसान अपने हित की मांगें लेकर देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर 17 दिन से आंदोलनरत हैं तो देश की सरकार को बड़प्पन और अन्नदाता के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए संवाद की टूटी डोर को फिर से जोड़ने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। बात बिगड़ने से पहले ही सरकार बना पायेगी तो किसान आंदोलन से लाभ उठाने के निहित स्वार्थी तत्वों के मंसूबे भी स्वत: ही नाकाम हो जायेंगे। ध्यान रहे कि लोकतंत्र में लोक के आगे झुकने से तंत्र का मान घटता नहीं, बढ़ता ही है।