अनिल अनूप की से
आठ फरवरी को दिल्ली के एक करोड़ छियालीस लाख मतदाता नई सरकार की किस्मत लिख देंगे, जिसका खुलासा ग्यारह फरवरी को हो जाना है। तभी 22 फरवरी से पहले सरकार का स्वरूप सामने आ पायेगा।
दिल्ली विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही ठंड के मौसम में भी दिल्ली का राजनीतिक तापमान ऊंचा है। आप 2015 दोहराने के लिए कमर कस रही, कांग्रेस खाता खोलने की तैयारी में और भाजपा दो दशक का राजनीतिक वनवास खत्म करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। नि:संदेह दिल्ली का दर्जा पूर्ण राज्य का नहीं है, मगर देश की राजधानी होने के नाते उसका सांकेतिक महत्व ज्यादा है। यही वजह है केजरीवाल सरकार के पूरे कार्यकाल में अधिकारों को लेकर केंद्र से टकराव सड़कों तक नजर आता रहा है। वैसे पिछले दिनों राजनीति के चतुर खिलाड़ी अरविंद केजरीवाल ने अपनी रणनीति में खासा बदलाव किया है। उन्होंने केंद्र सरकार और भाजपा से सीधे उलझने के बजाय अपने वोट बैंक को साधने का प्रयास किया है। उन्हें पता है कि मध्यवर्गीय वोटर उनके साथ पहले की तरह नहीं रहा, अत: आप ने उस तबके को साधने का प्रयास किया है जो मुफ्त-सुफ्त की राजनीति से खुश रहता है। यही वजह है कि पिछले कुछ महीनों में केजरीवाल सब्सिडी व मुफ्त का कार्ड खूब खेलते रहे हैं। बहरहाल, दिल्ली के चुनाव में मुकाबला आप, भाजपा व कांग्रेस के बीच में है। वर्ष 2015 में आप की आंधी में कांग्रेस साफ हो गई थी और आप ने अप्रत्याशित रूप से 67 सीटें हासिल करके भाजपा को बैकफुट पर ला दिया था। उसके मात्र तीन विधायक ही विधानसभा पहुंच सके थे। बावजूद इसके कि 2014 में नरेंद्र मोदी देश में भारी बहुमत हासिल करके देेश के प्रधानमंत्री बने थे और दिल्ली में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा था। वैसे ही वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सातों लोकसभा सीटें जीती हैं। पार्टी ने 56 फीसदी वोट हासिल करके 65 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की। वहीं कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन में सुधार करते हुए 22 फीसदी मतों के साथ दूसरा स्थान हासिल किया था।
बहरहाल, पुराना इतिहास रहा है कि दिल्ली की जनता लोकसभा व विधानसभा के लिए अलग पैटर्न से मतदान करती रही है। कह सकते हैं कि दिल्ली में त्रिकोणीय मुकाबला है। मगर केजरीवाल के मुकाबले का नेता न तो दिल्ली भाजपा के पास है और न ही कांग्रेस के पास। निर्विवाद रूप से अरविंद केजरीवाल आप के प्रतिनिधि और मुख्यमंत्री का घोषित चेहरा हैं। भाजपा व कांग्रेस मुख्यमंत्री का चेहरा जनता के सामने नहीं रख पाये हैं। इस बात पर केजरीवाल चुटकी भी लेते रहते हैं। कांग्रेस दिल्ली कांग्रेस की पर्याय शीला दीक्षित का विकल्प नहीं तलाश सकी। वहीं भाजपा मोदी मैजिक के भरोसे है। वह केंद्र सरकार की नीतियों के सहारे चुनावी वैतरणी पार उतरने की कोशिश में है। भाजपा के केंद्रीय मंत्री कह रहे हैं कि दिल्ली के विकास के लिये ट्रिपल इंजन सरकार चाहिए। यानी केंद्र, राज्य व स्थानीय निकायों में भाजपा की सरकार। निश्चित रूप से नागरिकता संशोधन कानून चुनाव में मुद्दा बनेगा। भाजपा ने घर-घर जाकर इसके बाबत मतदाताओं को जागरूक करने का अभियान छेड़ दिया है। वहीं जामिया हिंसा व जेएनयू विवादों की छाया भी चुनाव पर पड़नी लाजिमी है। एक बड़ी आबादी दूसरों राज्यों से आकर दिल्ली में बसती है। जातिवाद न सही क्षेत्रवाद तो चुनाव में हावी रहता ही है। यही वजह है कि भाजपा ने पार्टी का अध्यक्ष बिहार के मनोज तिवारी को बनाया था। वहीं मोदी सरकार ने डेढ़ हजार से अधिक अवैध कॉलोनियों को वैध बनाकर आप से यह मुद्दा छीना है। यह वक्त बताएगा कि भाजपा को इसका कितना लाभ मिलता है। बहरहाल, एक स्थानीय दल होने का फायदा आप को मिलेगा, साथ ही मुफ्त बिजली-पानी, शिक्षा, मोहल्ला क्लीनिकों का प्रयोग तथा महिलाओं को मुफ्त सफर करवाने की कवायद का लाभ आप सरकार को मिल सकता है।