अनिल अनूप
यह वाकई अमानवीय, बर्बर, निर्मम और जंगली व्यवहार है। बेशक अब वे लाशें हैं, लेकिन मानव-शरीर तो हैं। हमारी संस्कृति में शवों का सम्मान किया जाता है और धार्मिक रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया जाता है। लेकिन पश्चिम बंगाल में शवों के साथ जानवर से भी बदतर व्यवहार किया गया है। वे कोरोनाग्रस्त थे अथवा नहीं थे, बेशक कुछ सड़-गल गए थे, लेकिन 14 शवों को लोहे के हुकों से बांधकर और खींच कर, जमीन पर घसीटते हुए, एक वाहन में पटका गया। एक अन्य संदर्भ में शवों को गड्ढे में फेंका गया। एक बूढ़े के शव को बेड से ही बांध दिया गया। राजधानी दिल्ली के अस्पतालों में शवों के साथ ही कोरोना मरीजों को रखा गया। कोरोना महामारी के दौर में ऐसी कई विसंगतियां होंगी, जो सामने नहीं आ सकी होंगी, लेकिन मीडिया के जरिए वीडियो में उन दृश्यों को देखकर बंगाल के महामहिम राज्यपाल जगदीप धनखड़ भीग उठे और अधिकारियों को तलब कर रपट मांगी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रुख अस्पष्ट रहा है। यही वीडियो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी देखा, तो ये शब्द फूट पड़े-खौफनाक, दर्दनाक, दयनीय! गौरतलब यह है कि तीन न्यायाधीशों की न्यायिक पीठ ने खुद ही संज्ञान लिया और दिल्ली, बंगाल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु राज्य सरकारों को नोटिस भेजा है। दिल्ली सरकार के एक बड़े अस्पताल एलएनजेपी को भी नोटिस भेजा गया है। कोरोना काल में सर्वोच्च अदालत का यह एक महत्त्वपूर्ण दखल है। अगली सुनवाई 17 जून को तय है। नोटिस केंद्र सरकार को भी गया है, नतीजतन प्रधानमंत्री मोदी ने गृहमंत्री अमित शाह, स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन, एम्स निदेशक, आईसीएमआर महानिदेशक समेत अपने कार्यालय के बड़े अधिकारियों के संग कोरोना वायरस की मौजूदा स्थितियों पर समीक्षा-बैठक की। रविवार को गृहमंत्री ने दिल्ली के उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री की उपस्थिति में शीर्ष अधिकारियों के साथ विमर्श किया। दिल्ली के तीनों महापौरों संग अलग से बैठक की गई। अब पूरी मशक्कत दिल्ली को बचाने और आपात योजना तैयार करने की है। दरअसल अदालत का ‘सुप्रीम’ दखल कुछ अराजकताओं और लापरवाहियों को लेकर किया गया है। न्यायाधीशों ने सवाल किए कि मानव शव जमीन पर इधर-उधर क्यों पड़े हैं? उनकी दुर्दशा क्यों की जा रही है? शव के साथ ही कोरोना मरीज को क्यों रखा गया है? मृतकों की सूचना यथासमय उनके परिजनों को क्यों नहीं दी जाती रही है? किसी को अपने रिश्तेदार के अंतिम संस्कार करने से वंचित कैसे रखा जा सकता है? यदि अस्पतालों में बिस्तर खाली हैं, तो लोग अस्पताल-दर-अस्पताल क्यों भटक रहे हैं? एक सवाल कोरोना वायरस से सीधा जुड़ा था कि दिल्ली सरकार ने टेस्टिंग कम क्यों की है, जबकि महाराष्ट्र और तमिलनाडु में मरीजों का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है, लेकिन उन्होंने टेस्टिंग कम नहीं की है। सुप्रीम कोर्ट को तब हस्तक्षेप करना पड़ा है, जब अस्पतालों की व्यवस्था और दुर्दशा भयावह होती जा रही है। दिल्ली की गली-गली कोरोना वायरस से ग्रस्त है। चारों ओर हाहाकार मचा है। हररोज औसतन 2000 या उससे अधिक नए मरीज सामने आ रहे हैं। अब जून-जुलाई की व्यापक आपदा वाली स्थितियां आने की घोषणा दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री ही कर रहे हैं। अस्पताल सरेआम मना कर रहे हैं कि उनके यहां बिस्तर खाली हैं। कुछ तो कोरोना का इलाज करने में ही असहाय दिख रहे हैं। लिहाजा अब हाथ-पांव फूलने लगे हैं, तो गृहमंत्री अमित शाह भी प्रकट हो गए हैं। अलबत्ता उन्होंने सरोकार नहीं जताया कि दिल्ली में कोरोना इतना क्यों फैल रहा है। बहरहाल उनकी बैठक की प्रतीक्षा करनी चाहिए कि क्या फैसले लिए गए हैं, लेकिन लोकतंत्र में सर्वोच्च अदालत का दखल बहुत मायने रखता है। संविधान ने उसे विशेषाधिकार भी दिए हैं, लिहाजा बात नोटिस तक सिमट कर नहीं रहनी चाहिए। यदि वीडियो ने पीडि़त और व्यथित किया है, तो बात तार्किक अंत तक जानी चाहिए। बेशक भारत में कोरोना मरीजों की मृत्यु दर और स्वस्थ होने की दर बहुत अच्छी है। ठीक होने की दर पहली बार 50 फीसदी से अधिक हुई है, लेकिन संक्रमण के आंकड़े को लेकर हम विश्व में चौथे स्थान पर आ गए हैं। संक्रमण फैलता ही जा रहा है और उसे रोकने का रास्ता नहीं सूझ पा रहा है। हम अमरीका नहीं है कि संक्रमित 20 लाख तक भी पहुंच सकें। इतने संसाधन भारत में नहीं हैं। लिहाजा सर्वोच्च अदालत को सख्त लहजे में सवाल करने चाहिए कि आखिर कोरोना वायरस से निपटने को हमारी तमाम व्यवस्थाएं क्या हैं और क्या सरकारें सार्वजनिक तौर पर आश्वस्त कर सकती हैं?