शादाब जफर शादाब
बडबोले और बेहूदा बयान देने के लिए मशहूर सांसद गिरिराज सिंह ने बोला है की देवबंद आतंक का गढ़ है- गिरिराज सिंह को बता दूँ कि ये वही देवबंद है….जिस देवबंद से मौलाना हुसैन अहमद मदनी (रह.) ने अंग्रेज हुकुमत के खिलाफ फतवा दिया था कि अंग्रेजों की फौज में भर्ती होना हराम है। अंग्रेजी हुकुमत ने मौलाना के खिलाफ मुकदमा दायर किया था…जिस की सुनवाई में अंग्रेज जज ने पूछा -” क्या आपने फतवा दिया है कि अंग्रेजी फ़ौज में भर्ती होना हराम है..?”मौलाना ने जवाब दिया – ” हाँ फतवा दिया है…और सुनो यही फतवा इस अदालत में अभी भी दे रहा हूँ..और याद रखो…आगे भी जिंदगी भर यही फतवा देता रहूँगा।
जज ने कहा -” मौलाना ..इसका अंजाम जानते हो..सख्त सज़ा होगी.मौलाना ने जवाब दिया”फतवा देना मेरा काम हैं…और सज़ा देना तेरा काम तू सज़ा दे.।
जज गुस्से में आ गया -“तो इसकी सज़ा फांसी है। मौलाना मुस्कुराने लगे और झोले से कपडा निकाल कर मेज पर रख दिया.जज ने कहा ये क्या है..? मौलाना ने फरमाया “ये कफ़न का कपडा है …मैं देवबंद से कफ़न साथ में लेकर आया था।” जज ने कहा.” लेकिन कफन का कपडा तो यहाँ भी मिल जाता..”मौलाना ने जवाब दिया.” हाँ ..कफ़न का कपडा यहाँ मिल तो जाता..लेकिन …जिस अंग्रेज की सारी उम्र मुखालफत की..उसका कफ़न पहन के कब्र में जाना मेरे जमीर को गंवारा नहीं। ”
( फतवे और इस घटना के असर में ..हजारों मुस्लिम ने अंग्रेज़ फौज की नौकरी छोड़ कर जंगे आज़ादी में शामिल हुए और लाखों की तादाद में मुसलमान शहीद हुए) उसमें से 70000 हजार से ज्यादा मुस्लिम उलेमाओं ने शहीदी दी थी।
सहारनपुर लोकसभा सांसद हाजी फजलुर्रहमान ने केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के विवादास्पद बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि केंद्रीय मंत्री का बयान शर्मनाक है। इसकी जितनी निंदा की जाए उतना कम है. देवबन्द वह स्थान है जिसने देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी यहां के उलमा कराम ने लाठियां खाईं फांसी के फंदों को चूमा, जेल गए और शहीद हुए। दारुल उलूम देवबंद के ही मौलाना महमूद हसन, मौलाना हुसैन अहमद मदनी और दूसरे बुजुर्गों ने माल्टा की जेल में तकलीफ बर्दाश्त की। अब देवबन्द के बुजुर्गों और उलमा पर आतंकवाद का इल्ज़ाम वह लोग लगा रहे हैं जिनके नेताओं ने स्वतंत्रता की लड़ाई में अंग्रेजों की मदद की और अंग्रेज़ो से माफी मांगने पर वह जेल से बाहर आये इस वादे के साथ कि वह अंग्रेज़ो की सरकार के वफादार रहेंगें और अंग्रेज़ो की सरकार को मदद करेंगे और हिन्दू मुस्लिम के बीच नफरत की दीवार खड़ी करने का काम करेंगे। उसी एजेंडे को देश की आज़ादी के बाद गिरिराज सिंह और संघ परिवार व भाजपा से जुड़े हुए लोग आगे बढ़ाने का काम करते आ रहे हैं।
हम लोगों की कमजोरी ये है कि कोई कुछ भी कह दे लेकिन हम उसको जवाब नहीं देते, ना ही गौर करते हैं ,ना ही अपने बुजुर्गो की कुर्बानियों के इतिहास को पढ़ना और समझना चाहते हैं, इसी वजह से मुसलमानों के इदारो और बुजुर्गो को कोई कुछ भी बोल दे हम पर फर्क नहीं पड़ता क्यो कि हम जानते ही नहीं की हमारे बुजुर्गो का हिन्दुस्तान की आजादी में क्या योगदान है।
हिन्दस्तान की आजा़दी मैं मुसलमानों की कुर्बानियां का अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि वो इस मुल्क में अंग्रेजों के खिलाफ अलम-ए-जिहाद को बुलंद करने के साथ ही इस मुल्क को आज़ादी का तसव्वुर (concept) देने वाले पहले हिन्दुस्तानी थे और सच कहा जाए तो उन्होंने ही अंग्रेजों के वजूद को कभी कुबूल ही नही किया।आखिर ये कैसे मुमकिन था कि जिस कौम ने 700 सालों तक इस मुल्क के सरहदों की निगहबानी की वो चंद लम्हों में अंग्रेजों के आगे अपने सरों को खम कर ले, शायद यही वजह रही कि तारीख ने मुसलमानों के सर हमेशा नेजों पर देखे। खुदा का शुक्र है कि कभी वो मंज़र नजर ही नही आया जब मुसलमानों ने जां की अमां पाने के मक़सद से अपने वजूद के सौदे कर लिए हो ,मुसलमानों का अपने मुल्क हिन्दुस्तान के लिये जज्ब-ए-इश्क तो कुछ ऐसा था कि जब अंग्रेजों द्वारा बहादुरशाह जफर के चारों बेटों के कटे सरों को उन के सामने पेश किया तो उन्होंने यही कहा कि तैमूर की औलादें इसी तरह से सुर्खरू होकर बाप के सामने आती हैं।
क्या हमारी नई नस्ले आज अंग्रेजों के खिलाफ फतव-ए-जिहाद करने वाले उस मर्द ए मुजाहिद शाह अब्दुल अज़ीज़ (रह०) को जानती है जिन्होंने चंद लम्हों में ही मुसलमानों की जिंदगियों के मायने तब्दील कर दिये और हिन्दुस्तान के मुसलमानों के लिए इस मुल्क की आज़ादी के लिए जद्दोजहद करने की कोशिशों को भी एक मजहबी करार दे दिया | मुझे कह लेने दीजिये कि 1772 इसवी में जिस वक्त शाह अब्दुल अज़ीज़ ने अंगेजों के खिलाफ ये फतवा सादिर किया उस वक्त इस मुल्क में गैर मुस्लिमों के जहन में आजादी का शऊर भी बेदार न हुआ था | ये गलत है कि हिन्दुस्तान की आज़ादी के तारीखी सिलसिले का आगाज 1857 से हुआ बल्कि सच तो ये है कि 1857 की जंग-ए-आज़ादी से 85 साल पहले मुसलमान अंग्रेजो के खिलाफ फतव-ए-जिहाद सादिर कर उनसे लडने की प्लानिंग कर रहे थे और मुसलमानों को सिराजुद्दौला और हैदर अली की सरपरस्ती में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए देखा जा सकता था बल्कि टीपू सुलतान ने तो अंग्रेजों को इस मुल्क से भगाने के लिए एक हिकमत-ए-अमली भी तजवीज की थी जिसके तहत हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ हुक्मरानों को एक होकर फिरंगियों का मुकाबला करना था लेकिन शायद कुदरत को कुछ और ही मंजूर था | टीपू सुलतान की ये कोशिशें भले ही कामियाब न हो पाई लेकिन उसके जरिये इस मुल्क की आज़ादी के लिए की गयी जद्दोजहद के नतीजे में ही दुनिया को राकेट टेक्नोलॉजी मिली।
हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए अपनी जानों को वक्फ कर देने वाले इन मुसलमानों की फेहरिस्तें बड़ी तवील है मेरे ज़हन-ओ-दिमाग अब भी शाह मुह्द्दिस देहलवी से लेकर हज़रात सय्यद अहमद शहीद, हज़रात मौलाना विलायत अली सादिकपुरी , और बहादुर शाह ज़फर से लेकर अल्लामा फज़ले हक़ खैराबादी, शहज़ादा फ़िरोज़ शाह ,मोलवी मुहम्मद बाकिर शहीद, बेगम हज़रत महल, मौलाना अहमदुल्लाह शाह , नवाब खान बहादुर खान, हज़रत मौलाना मुहम्मद क़ासिम नानोतवी जैसे वो हजारों नाम है कि जिनका जिक्र करते हुए सफ्हे-कुर्तास की ये सारी खाली जगहें पुर की जा सकती है लेकिन सवाल यहाँ पर यही है कि आखिर सफ्हे-कुर्तास पर मौजूद ये खाली जगहें क्यूँ पुर नही की जा रही, मुसलमानों को समझ लेना चाहिये कि तारीख मुस्तकबिल का वो आइना है कि जिस पर उभरने वाले अक्सों से ही कौमों के फ़िक्र-ओ-अमल के फैसलें किये जाते है , जो कौमें अपनी बुजुर्गो और तारीख को भूलकर आगे बढ़ने की कोशिशें करती है उनका हश्र उन्ही यूनानियों और उस्मानियों जैसा होता है जब उन्ही के सामने उनके जरिये ही तहजीबों के शीराजे मुन्तशिर कर दिए जाते है | यही वजह है कि आज जब मुसलमानों से हिन्दुस्तान की आज़ादी के बारे में बातें की जाती है तो उन्हें इस बात का इल्म ही नही होता कि सरदार पटेल, नेहरु और भगतसिंह से पहले मुज़्तबा हुसैन या कोई अहमदुल्लाह शाह भी था कि जिन्हें इस मुल्क की आज़ादी के लिए पेश की गयी कुर्बानियों के नतीजे में सबिस्तान-ए-अजल का हिस्सा बना दिया गया |
मुजाहिद ए आज़ादी अहमदुल्लाह शाह कौन थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है वो 1857 की बगावत के वो ऐसे अहम सुतून थे कि जिनके जिक्र के बगैर मुजाहिदीन-ए-हिन्द पर लिखे गये किसी भी सहीफे को मुकम्मल करार नही दिया जा सकता | ये वही मौलाना अहमदुल्लाह शाह थे कि जिन्हें पकड़ने के लिए गवर्नर जनरल कैनिंग ने उस दौर में 50, 000 रुपये ईनाम का ऐलान किया जबकि उस दौर मैं लोगों के महीने भर की तनख्वाहें भी एक रुपया हुआ करती थी | ये इत्तेफाक की बात है कि जिस अहमदुल्लाह शाह (रह०) ने अपनी जिन्दगी के हर एक लम्हों को इस वतन-ए-अजीज की आज़ादी के ख्याल में कुर्बान कर दिया उससे अपनों ने ही वफायें न की और उन्हें अंग्रेजों के वफादार राजा जगन्नाथ सिंह के जरिये धोखे से कत्ल कर दिया गया | अहमदुल्लाह शाह के वजूद का यू मिट जाना उस वक़्त हिन्दुस्तान की आजादी के लिये बहुत बड़ी कुर्बानी थी। ये मौलवी अहमदुल्लाह शाह के असर-ओ-रसूख का ही नतीजा था कि अंग्रेजों ने दहशत फ़ैलाने के मकसद से उनके सिर को पूरे शहर में घुमाने के बाद शाहजहाँ पुर की कोतवाली में लगे नीम के पेड़ पर लटका दिया ताकि हर कोई देख ले कि मुल्क से मुहब्बत का दम भरने और आज़ादी का ख्याल रखने वाले इंसानों का क्या हश्र होना है |
क्या ये हमारे लिए अफ़सोस का मकाम नही है कि आज हम अपने ही उल्माओं के कारनामों और इस मुल्क की आज़ादी के लिए पेश की गयी उनकी बेपनाह कुर्बानियों से भी वाकिफ नही हैं हमें पता ही नही कि आखिर एशिया के सबसे बड़े इल्मी इदारे दारुल उलूम का कयाम किन मक़सद के तहत अंजाम दिया गया या फिर वो कौन सी वजूहातें थी जिन्होंने मुसलमानों को तहरीक-ए-रेशमी रुमाल (silk revolution) को जारी करने पर मजबूर कर दिया | मुझे कह लेने दीजिये कि आजादी के बाद हमने अपने नौजवानों को अपने बुजुर्गो की कुर्बानियों से बहुत दूर रखा। और आज ये उसी का नतीजा है कि जब हमारे नौजवानों से हिन्दुस्तान की आज़ादी के बारे में कोई सवाल किया जाता है तो वो ख़ामोशी से इस बात का इकरार करते हुए नजर आते है कि मुसलमानों ने इस मुल्क की आज़ादी में कोई हिस्सा ही नही लिया जबकि हकीकत तो ये है कि इस मुल्क की आज़ादी का बिगुल फूंकने वाले कोई और नही यही मुसलमान थे जिन्हें आज कुछ लोग गद्दार और पाकिस्तान परस्त बता रहें हैं,जब की हमेशा ही हिन्दुस्तान के मुसलमान ने हिन्दुस्तान पर जान निछावर की है और करता रहेगा…
मिट जाऊं वतन पर ये मेरे दिल में लगन हैं।
नज़रों मै मेरी कब से तिरंगे का कफ़न हैं।।