राम जनम यादव की रिपोर्ट
जून 2020 में अध्यादेश लाकर सरकार ने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने हेतु कृषि से जुड़े तीन नए बिल पेश किये। सरकार की माने तो ये विधेयक किसानों के हित में है वही किसानों में इन विधेयकों को लेकर खासी नाराजगी दिखाई दे रही है। अध्यादेश आने के बाद पंजाब में अकाली दल की नेता व सरकार में मंत्री पद पर काबिज़ हरसिमरत कौर ने इस्तीफा दे दिया था। वहीं किसानों ने इन विधेयकों के खिलाफ 8 दिसंबर को भारत बंद का एलान कर दिया है। कृषि बिल पर आखिर क्यों है किसानों का विरोध? चलिए जानते है कि क्या है ये तीन विधेयक? जिनको लेकर किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे है।
प्रथम-आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020, इस विधेयक में आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन हुआ है। इस बिल के इतिहास को जाने तो आजादी के बाद देश मे आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी और उनसे होने वाली कालाबाजारी को रोकने हेतु 1955 में यह बिल लाया गया। इस बिल के माध्यम से साहूकारों और व्यापारियों द्वारा जमाखोरी से होने वाली कालाबाजारी से वस्तु की कीमत में वृद्धि को रोकने में मदद मिली। इस बिल के अंतर्गत किसी भी तरह के भंडारण को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में रखा जाता था। वहीं 2020 के इस विधेयक ने 1955 के बिल को पलट दिया है इसके अंतर्गत व्यापारी व किसान दोनों को यह छूट होगी कि वो युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि और प्राकृतिक आपदा जैसी स्थिति को छोड़कर असीमित भंडारण कर सकता है। इस श्रेणी में अनाज, दाल, तिलहन, ख़ाद्य तेल, प्याज और आलू जैसी वस्तुओं को बाहर रखा गया है। अब आप समझिए कि बड़े व्यापारी को इस बिल के माध्यम से छूट मिल गयी कि वो अधिकतम आवश्यक वस्तुओं का भंडारण कर सकता है। किसान इस बिल का विरोध इसलिए कर रहे है क्योंकि इससे देश मे वस्तुओ की जमाखोरी और कालाबाजारी को बढ़ावा मिल सकता है। लेकिन सरकार कह रही है कि ये सुविधा किसानों को भी दी जा रही है। अब सवाल ये है कि किसान अपनी उपज को उगाए या फिर भण्डारण करे?
दूसरा- मूल्य आश्वासन पर किसान समझौता और कृषि विधेयक 2020, ये बिल किसानों के लिए बेहतरीन बिल है लेकिन कुछ सुधारों के साथ। इस बिल के माध्यम से किसान अपनी फसल का पहले से ही बड़ी कंपनियों से कॉन्ट्रैक्ट कर सकती है जिसे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या अनुबंध कृषि या ठेका खेती कहा गया है। इस बिल में देश भर में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव है। इसके माध्यम से बड़ी कंपनियां किसानों को अपनी फसल उगाने के लिए कॉन्ट्रैक्ट कर सकती है। एक उदाहरण से समझते है। लेज चिप्स बनाने वाली कंपनी को आलू की जरूरत है। वो कंपनी किसानों से कहेगी कि आप अपने खेतों में इस वर्ष इतने मीट्रिक टन आलू उगाएंगे। कंपनी इसके लिए किसानों को फसल से पूर्व ही आलू की कीमत मान लीजिए 25 रुपये किलो रखकर एक कॉन्ट्रैक्ट करती है। इससे होगा ये किसान अपनी फसल को बेचने की समस्या से छुटकारा पा लेगा और कंपनी को फसल के बाद कही और से अपने चिप्स के लिए आलू खरीदने की समस्या से छुटकारा मिल जाएगा। इससे होगा ये अगर बाजार में आलू के दाम में 15 रुपये किलो भी हो जाये तो किसानों को कोई दिक्कत नही होने वाली क्योंकि उन्हें तो कंपनी 25 रुपये ही देगी। अब बात करते है इस बिल की समस्या के बारे में। आपने देखा कंपनी ने आलू की कीमत फसल से पूर्व ही 25 रुपये किलो रखी थी लेकिन बाजार में आलू की कीमत अगर 50 रुपये किलो हो जाये तब क्या होगा? ऐसा ही अगर बाजार में आलू की कीमत 10 रुपये किलो हो जाए तब कंपनी ही किसान का आलू खरीदने से मना कर दे तो। इस स्थिति में कंपनी व किसान के बीच के हुए विवाद के मामले में दोनों पक्ष तहसील में नियुक्ति sub division magistrate यानी sdm को दाखिल कर आपसी सुलह कर सकते है। यह विधेयक विवाद को सुलझाने के लिए दोनों पक्षों को दीवानी अदालत जाने की इजाजत नही देता। यही वजह है जो विवाद का कारण है। इस व्यवस्था से किसान को डर है कि क्या होगा जब कंपनी ऐसी स्थिति में उसका आलू 25 रुपये किलो में खरीदे ही न?
तीसरा-कृषि उपज वाणिज्य और व्यापार विधेयक 2020, इस विधेयक के अनुसार किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फसल बेचने की आजादी होगी। फसल की बिक्री पर कोई टैक्स नही लगेगा। पेमेंट की शर्तें तय करने और विवाद के निपटारे के लिए एसडीएम स्तर के अधिकारी या उसके द्वारा नियुक्त आर्बिटेशन कमेटी को अधिकृत किया गया है। इसको अच्छे से समझे तो इसके अनुसार किसान अपनी फसल राज्य या राज्य के बाहर किसी भी मनचाही जगह पर जाकर बेच सकता है या खरीद सकता है। इस बिल के माने तो इसमें कई खामियां है। सरकार का कहना है इस बिल के माध्यम से मंडी समिति या बाजार समिति को समाप्त कर दिया गया है सरकार का कथन है इससे किसानों को मंडी समिति या बाजार समिति में आढतियों की छुट्टी हो जाएगी। सरकार की एक संस्था है एनएसएसओ जो बेरोजगारी का डेटा और मंडियो में भारत मे उत्पादित विक्रित उपज का डेटा उपलब्ध कराता है। हालांकि सरकार ने इन संस्था को ही बंद कर दिया शायद बंद करने का कारण यही रहा होगा न डेटा होगा न बेरोजगारी होगी। खैर इस संस्था के अनुसार देश की कुल खेती का महज 6% ही इन मंडी समितियों में जाता है बाकी का 94% किसान इधर उधर बेचता है। तो यह तर्क कहाँ तक सही है समझ से परे है। वहीं आढतिये इस बिल के विरोध में इसलिए है क्योंकि पंजाब हरियाणा के ज्यादातर किसान जो अपनी जीविका इन्ही किसानों से चलाते थे वो अब क्या करेंगे? वहीं राज्य सरकार की माने तो तो किसान अब बिना किसी टैक्स के अपनी उपज किसी भी राज्य में बेच सकेंगे। जिससे राज्यो को भी इस बिल से नुकसान होना जायज है।
अंततः एक सबसे जरूरी बात MSP की है यानी न्यूनतम मूल्य समर्थन इस पर सरकार की मंशा समझ मे नही आ रही है पहले तो MSP को लेकर सरकार आशांकित थी लेकिन दवाब के बाद सरकार ने MSP को लेकर जो वादा किसानों से किया है। उस पर किसानों का विश्वास बन नही पा रहा है। लगता है सरकार अपने सरकारी एफसीआई गोदाम में जो MSP पर किसानों से जो खाद्यान्न क्रय करती थी वो अब इन बिल्स के माध्यम से क्रय करने से बचने की कोशिश में है। सरकारी FCI गोदाम की स्थापना आजादी के बाद से ही आपातकाल और युद्ध जैसी समस्याये से बचने के लिए किसानों से निश्चित MSP पर गेहूं चावल जैसी खाद्य पदार्थो का संग्रह करने और उसको कम मूल्य पर सरकार BPL धारकों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने के रूप में हुई थी। लेकिन अब लगता है। गरीब BPL धारकों को यह खाद्यान्न देना वर्तमान सरकार को अतिरिक्त बोझ लगने लगा है। इसलिए सरकार FCI गोदाम में तय MSP पर किसानों की उपज को लेने से बचने के लिए भी इन बिलो को लाना एक जरूरी कदम है। (सभार : धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी की एफबी वॉल से ) में