अनिल अनूप की से
दरअसल निर्भया कांड के बाद गठित जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी ने यौन दुष्कर्म संबंधी कानून में जो संशोधन किए थे, तभी इन छिद्रों को भी भरना चाहिए था। हमारे हरेक कानून में ढेरों छिद्र हैं, जिनके कारण फांसी की सजा पाए अपराधी भी बचते रहे हैं। कई मामलों में मृत्युदंड को उम्रकैद में तबदील किया गया है। कानूनी छिद्रों के कारण ही निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या के ‘दरिंदों’ की फांसी भी टलती जा रही है। अब भी निश्चित नहीं है कि एक फरवरी वाले ‘डेथ वारंट’ के मुताबिक चारों वहशियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाया जा सकेगा! सात लंबे सालों बाद भी इतनी अनिश्चितता…! अभागिन मां रोये नहीं, तो क्या करे…? सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय ने सजायाफ्ता पवन गुप्ता की याचिका को खारिज कर दिया। उसकी गुहार थी कि उस बर्बर कांड के वक्त वह नाबालिग था। जांच अधिकारियों ने उम्र तय करने के लिए हड्डियों की जांच नहीं की थी, लिहाजा उसके मामले को जुबेनाइल एक्ट की धारा 7(1) के तहत सुना जाए। न्याय-प्रक्रिया में हुई चूक उसे फांसी के फंदे तक पहुंचा देगी। हालांकि सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि पवन का जन्म प्रमाण-पत्र पुलिस ने कोर्ट में दायर किया था। उसी के आधार पर तय हुआ कि वह नाबालिग नहीं था। दोषियों ने 2013 की जांच रपट का विरोध नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट ने भी 9 जुलाई, 2018 को कहा था कि ट्रायल कोर्ट ने इस मुद्दे पर सही से विचार किया था, लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने इसी आधार पर पवन की याचिका खारिज कर दी। हालांकि शीर्ष अदालत ने बेहद सख्त टिप्पणी की कि यही दलीलें निचली अदालत, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में पहले भी सुनी जा चुकी हैं। तो फिर उन्हें बार-बार दोहराते हुए याचिका दाखिल कर अदालत का वक्त क्यों बर्बाद किया जा रहा है? न्यायाधीश के कथन फटकारनुमा थे, लेकिन ‘दरिंदों’ की पैरवी कर रहे वकील लगातार 45 मिनट तक दलीलें देते रहे। यह कैसा कानून और पैरोकारी की कैसी स्वतंत्रता है? हम मानते हैं कि कानून में इतनी गुंजाइश और व्यापकता होनी चाहिए कि किसी मासूम और बेगुनाह को सजा न मिल जाए! कानून के आखिरी छोर तक न्याय होना चाहिए, लेकिन ‘राक्षसों’ को भी इतनी छूट के मायने इंसाफ हासिल करना नहीं है। वे फांसी को टलवाना चाह रहे हैं। फांसी के एहसास मात्र से वे कांप रहे हैं, खौफजदा हैं, एक ने तो कोठरी में भी खुदकुशी की नाकाम कोशिश की। हमारा बुनियादी सवाल वही है कि आखिर इन ‘दरिंदों’ को फांसी कब दी जाएगी? सब कुछ आईने की तरह स्पष्ट है। जब निर्णायक तौर पर अदालत ने फांसी का वारंट जारी कर दिया तो न्यायिक विकल्पों की दलीलें शुरू कर दी गईं। बेशक वे विकल्प भी कानूनन हैं, लेकिन हमारे कानून में छिद्रों के सच को बयां भी करते हैं। मोदी सरकार ने भी बलात्कार, सामूहिक दुष्कर्म, बर्बर और जघन्य व्यवहार तथा हत्या को लेकर कुछ संशोधन किए थे। तब इन छिद्रों को हटाया जा सकता था। बहरहाल अब वह अतीत है। मोदी सरकार अब भी कैबिनेट की बैठक बुलाकर कानून को संशोधित कर सकती है। निर्भया कांड के पाशविक चेहरों के पास अब भी क्यूरेटिव याचिका और राष्ट्रपति की दया के विकल्प शेष हैं। हालांकि मुकेश के पास कोई कानूनी विकल्प नहीं बचा है, लेकिन जब तक चारों के सभी विकल्प समाप्त नहीं होंगे, तब तक उन्हें फांसी नहीं दी जा सकती। यह हमारे कानून की व्याख्या है। यही कानून के छिद्र हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद सार्वजनिक तौर पर बयान दे चुके हैं कि ऐसे अपराधियों के लिए दया याचिका का विकल्प समाप्त किया जाना चाहिए, लेकिन राष्ट्रपति तो बयान ही दे सकते हैं। कार्यकारी शक्तियां तो केंद्र सरकार के पास हैं। बहरहाल हमें नहीं लगता कि कोई रास्ता निकलेगा। मूकदर्शक बने देखते रहिए कि ‘दरिंदों’ को फांसी कब होती है।