अनिल अनूप
कांग्रेस के दो प्रमुख नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा हाथरस तो नहीं पहुंच पाए, लेकिन उनके नेतृत्व में कांग्रेसियों ने जमीनी और आक्रामक राजनीति के तेवर जरूर दिखा दिए। पुलिस की धक्कामुक्की में राहुल जमीन पर गिर पड़े, पुलिस के कुछ हाथ उनके गिरेबान तक पहुंचे और उन पर पुलिसिया लाठी तान कर उन्हें डराने की कोशिश की गई। यह लोकतांत्रिक भारत का कौन-सा कानून है? कांग्रेस नेता हाथरस की उस दिवंगत बेटी के पीडि़त और शोकाकुल परिजनों को सांत्वना देकर उनकी पीड़ा में शरीक होना चाहते थे, जिस बेटी के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया। उसके साथ अमानवीय हरकतें की गईं। कुछ ही पलों में बेटी की इज्जत, गरिमा और अस्तित्व को लीर-लीर कर दिया गया। बुनियादी मुद्दा बेटी, बहू और औसत महिला के मानवाधिकार और सम्मान का था, लिहाजा राहुल और प्रियंका उसे साझा करना चाहते थे।
उप्र की योगी सरकार और भाजपा ने कभी नहीं चाहा होगा कि टीवी चैनलों और मीडिया के जरिए गांधी परिवार के प्रमुख चेहरों के आक्रामक और संघर्षरत चित्र सामने आएं, लेकिन इस बार कांग्रेस अपनी रणनीति में बाजी मार गई। बहरहाल इन दोनों नेताओं का जिक्र प्रसंगवश है। बलात्कार, दरिंदगी और हत्या का संवेदनशील मुद्दा एक बार फिर हमें मथ रहा है। और कितनी ‘निर्भया’ और कितनी दरिंदगियां हमारे समाज को देखनी पड़ेंगी? जीभ समाज की काटी जा रही है और रीढ़ की हड्डी मानव सभ्यता की तोड़ दी गई है। अपनी संस्कृति पर बेहद अभिमान करने वाले इस देश में हररोज औसत 10 दलित बेटियों, महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाते हैं। दिसंबर, 2012 में राजधानी दिल्ली के ‘निर्भया कांड’ ने पूरे देश को झकझोर दिया था, लेकिन 2013 के बाद छह सालों के अंतराल में बलात्कार और दरिंदगी के करीब 2.5 लाख मामले सामने आ चुके हैं। कोरोना काल के दौरान ही लैंगिक दुराचार की 13,410 घटनाएं हो चुकी हैं। इससे ज्यादा शर्मनाक भी कुछ हो सकता है! यह बर्बरताओं और राक्षसी प्रवृत्तियों का समाज है या बेखौफ जमात का दौर है कि किसी को किसी का भय ही नहीं है। बलात्कारी कानून से भी खौफ नहीं खाते! बेशक हाथरस सरीखे प्रकरणों के बाद बलात्कारियों को फांसी देने का शोर मचाया जा सकता है या किसी चौराहे पर सरेआम उन्हें ‘नपुंसक’ बनाया जा सकता है अथवा हैदराबाद की तरह पुलिस मुठभेड़ में दरिंदों को ढेर किया जा सकता है, लेकिन बलात्कार, दुष्कर्म और हत्या के आंकड़े कमोबेश एक सभ्य इनसान को कंपा और डरा देने वाले हैं। देश में औसत 90 बलात्कार हररोज किए जा रहे हैं। हर घंटे 4 या उससे ज्यादा बलात्कार…! एक साल में 32,000 से अधिक बलात्कार के केस दर्ज किए जाते हैं। उससे अलग स्थिति क्या होगी, कमोबेश इन्सानियत की कल्पना से परे है। राजनीतिक दल अपनी-अपनी सरकार वाले राज्य के बाहर के आंकड़े न गिनाएं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक राजस्थान सबसे पहले स्थान पर है और उप्र दूसरे स्थान पर है, लेकिन बलात्कार के मामलों का लगभग दोगुना अंतर है। बलात्कार की कोई संख्या नहीं होती। किसी के लिए ये आंकड़े और ब्यौरे हो सकते हैं, लेकिन हमारे लिए दरिंदगी की बारियां और गणनाएं हैं। इसकी संवेदनशीलता के मद्देनजर ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने स्वतः संज्ञान लिया है और उप्र सरकार के गृह प्रमुख सचिव और डीजीपी, एडीजीपी (कानून-व्यवस्था) आदि को तमाम दस्तावेजों सहित अदालत में तलब किया है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी तलब किया है कि आखिर रात के अंधेरे में, बाप की उपस्थिति के बिना, बेटी का अंतिम संस्कार कैसे कर दिया गया? क्या हिंदू धर्म में कोई और व्यक्ति भी बेटी को मुखाग्नि दे सकता है? ये कर्म बलात्कार और हत्या से भी ज्यादा जघन्य और बर्बर हैं। पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारी बलात्कार की नई परिभाषा बता रहे हैं कि पीडि़ता के निजी अंग में बलात्कारी का वीर्य और शुक्राणु नहीं हैं, लिहाजा रेप की पुष्टि नहीं होती। ‘निर्भया कांड’ के बाद पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा और जस्टिस लीला सेठ की कमेटी ने बलात्कार और यौन उत्पीड़न संबंधी नए कानून का प्रारूप तैयार किया था और जिसे संसद का विशेष सत्र बुलाकर सर्वसम्मति से पारित किया गया था। यदि शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारियों को उस कानून की बुनियादी जानकारी नहीं है, तो मुख्यमंत्रियों से हमारा सुझाव है कि उन्हें तुरंत उन पदों से हटा दिया जाए, क्योंकि परोक्ष तौर पर वे भी दरिंदगी कर रहे हैं। बहरहाल अदालत और आयोगों ने सरकार को जिस तरह तलब किया है, तो वे मामले तार्किक परिणति तक पहुंचने चाहिए। रस्म अदायगी स्वीकार्य नहीं है।
योगी सरकार ने राहुल जी-प्रियंका जी के बाद अब हाथरस की आवाज उठाने से महिला पत्रकार को रोका.
Gepostet von Keshav Chand Yadav am Freitag, 2. Oktober 2020