अनिल अनूप
कुछ उपनिवेशवादी अधिकारियों का वर्चस्व प्रशासन में है, लिहाजा वे राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और उसके उपनगरों के बीच अलगाव की सरहदें खींच रहे हैं। केंद्रीय गृह सचिव ने व्यवस्था दी है कि बॉर्डर सील नहीं किए जाएंगे और आवाजाही के लिए किसी भी तरह के पास की अनिवार्यता नहीं होगी। जिनके हस्ताक्षर से केंद्र सरकार के ऐसे आदेश जारी किए गए, वह व्यवस्था के लिहाज से देश का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी होता है। लेकिन छिद्र खुद केंद्र सरकार ने मुहैया किए हैं, जो राज्य सरकारों को अतिरिक्त सख्ती बरतने की छूट दे दी। फिर मुख्यमंत्री ने जिला मजिस्टे्रट और आयुक्त स्तर के अधिकारियों को विशेषाधिकार दे दिए कि वे स्थितियों का आकलन करें और चाहे तो बॉर्डर सील कराए या दो राज्यों के बीच सड़कों को इतना गहरा खुदवाएं कि इधर-उधर आवाजाही संभव न हो। आंध्रप्रदेश के एक जिले में तो कंकरीट की दीवार खड़ी कर दी गई। राजधानी दिल्ली और उसके उपनगरों-गुरुग्राम, फरीदाबाद, गाजियाबाद, नोएडा और जीटी रोड पर सोनीपत आदि-के बीच इसी सोच के मद्देनजर सीमाएं सील की गईं। उनमें से कुछ अब भी सील हैं, बेशक देश खोल दिया गया है। दिल्ली और दूसरे राज्यों के बीच 100 से अधिक बॉर्डर हैं, लेकिन 13 ही ऐसे हैं, जिनका ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। सीमाओं पर पहरेदारी और ऐसी पाबंदियां बिठाना हमें असंवैधानिक प्रतीत होता है। असंख्य नागरिक इन उपनगरों से दिल्ली आते हैं-नौकरी या कारोबार करने, पढ़ाई के लिए, चिकित्सीय कारणों से अथवा किसी अन्य जरूरी काम से। अनुमान है कि करीब 7-8 लाख वाहन हररोज दिल्ली की ओर आते हैं। उन पर विराम या अर्द्धविराम लगाया जाएगा, तो अराजकता का फैलना तय है। दरअसल 1990 के दशक में ऐसे कई शहरों को राजधानी दिल्ली से जोड़ा गया और उसे ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र’ नाम दिया गया। बेशक उपनगर अलग-अलग राज्यों के प्रमुख शहर हैं, लेकिन वे देश की राजधानी के ही हिस्से हैं। उनके बीच सीमाएं बंद या खींचने की हरकतों को स्वीकार कैसे किया जा सकता है? यही औपनिवेशिक मानसिकता है। एक जिला स्तर का प्रशासनिक अधिकारी देश की राजधानी को एक अन्य राज्य से कैसे काट सकता है? असंख्य नागरिकों के घर, दफ्तर, फैक्टरियां और परिजन इसी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में, अलग-अलग स्थानों पर मौजूद हैं। उनके बीच पुलिसिया धौंस या प्रशासनिक अहम अथवा जबरन अलगाव कैसे बोया जा सकता है? क्या ये भारत-चीन, भारत-पाकिस्तान के दरमियान की सरहदें हैं, जिन्हें अपने ही नागरिकों के लिए सील किया जाता रहा है? क्या इन्हें पार करने को वीजा जैसे ई-पास की दरकार बनी रहेगी? सुखद है कि हरियाणा सरकार ने तो सीमाएं खोलने का निर्णय ले लिया है, लेकिन नोएडा और गाजियाबाद के दोनों डीएम ने आपस में विमर्श किया और फिलहाल सीमाओं को दिल्ली से काट कर रखने का फैसला लिया है। तो फिर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का औचित्य, संवैधानिकता क्या है? कमोबेश सर्वोच्च न्यायालय को इस संदर्भ में खुद ही संज्ञान लेना चाहिए। ऐसा संज्ञान उसका विशेषाधिकार है, जो संविधान ने प्रदान किया है। यह आलेख लिखने तक दिल्ली-नोएडा बॉर्डर पर मीलों लंबा जाम लगा था और लोग नोएडा में प्रवेश के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। दरअसल यह उनकी आजीविका का सवाल भी है। सीमाएं सील कर देने से न तो कोरोना वायरस का संकट कम होता है और दूसरी तरफ से आने वालों के जरिए ही संक्रमण फैलता भी नहीं है। दिल्लीवाले ही संक्रमण नहीं फैला रहे हैं। यह देश उनका भी है, बल्कि उनका पहला अधिकार है, क्योंकि वे राजधानी में रहते हैं, वे भी इस देश के नागरिक हैं, हम सब मिलकर भारत देश बनाते हैं। फिर देश के भीतर ही सीमाएं सील कैसे की जा सकती हैं? ऐसे ही कुछ निर्णय कर्नाटक, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्य सरकारों ने भी किए हैं कि अमुक राज्य के लोग और परिवहन उनकी सीमाओं में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। क्या ऐसी पाबंदियों से ही कोरोना समाप्त होने लगेगा? यह दरअसल राजनीतिक बेवकूफी और जड़ता की सोच का ही परिणाम है कि भारत अपनी सीमाओं के भीतर ही सरहदों में बांटा जा रहा है और सरकार के शीर्ष स्तर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है।