अनिल अनूप
रमजान के मुबारक महीने की शुरुआत के साथ मुस्लिम उत्पीड़न का मुद्दा उठाना एक वैचारिक और राजनीतिक फैशन है। इस पाक महीने की पूर्व संध्या पर देश के 101 पूर्व नौकरशाहों ने सभी मुख्यमंत्रियों और उपराज्यपालों को पत्र लिखा और मुसलमानों के उत्पीड़न की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की। पत्र लिखने वाले कोई सामान्य चेहरे नहीं हैं। सभी आईएएस, आईपीएस और अन्य भारतीय सेवाओं में रह चुके हैं। वे कैबिनेट सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त, रॉ खुफिया एजेंसी के चीफ और मुख्य सूचना आयुक्त सरीखे पदों पर काम कर चुके हैं। वे सत्ता के सूत्रधार रहे हैं और उन्हें कांग्रेसधर्मी माना जाता रहा है। कोरोना वायरस के इस वीभत्स दौर में भी कोई एक समुदाय, संप्रदाय अथवा जिहालत की जमात की पैरोकारी करेगा, यह विचार कभी मन या दिमाग में उभरा ही नहीं। कोरोना जाति, धर्म, रंग, लिंग, नस्ल आदि सभी बंधनों के पार है। यह वक्त सिर्फ मानवीय सरोकारों और संवेदनशील सोच का है। पत्र लिखने वाले गिरोह का एक विवादित अतीत भी है। इसी गिरोह ने अ़फज़ल गुरु और याकूब मेमन सरीखे आतंकियों की पैरोकारी में भी पत्र लिखे थे। इसी गिरोह ने अमरीकी प्रशासन को भी पत्र लिखकर आग्रह किया था कि नरेंद्र मोदी को वीजा न दिया जाए। हालांकि तब भी मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इसी गिरोह के एक और दस्ते ने प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान, असहिष्णुता के मुद्दे को तूल देते हुए, अवार्ड वापसी का आह्वान किया था। इनमें से एक भी शख्स की राष्ट्रीय संवेदना नहीं जगी और उसने मुस्लिम जमातियों को मुख्यधारा में आकर कोरोना वायरस का टेस्ट कराने का अनुरोध या गुहार नहीं की। राष्ट्रीय तथ्य सभी के सामने हैं। यदि कोरोना संक्रमितों की संख्या 26,000 को पार कर गई है, तो यह देशव्यापी आकलन ही है कि उसमें 30 फीसदी से अधिक भूमिका तबलीगी जमात के सदस्यों ने ही निभाई है। आज भी उन्हें संक्रमण के विस्तार और प्रसार की चिंता नहीं है। आज भी सैकड़ों जमाती लापता हैं या छिपे बैठे हैं। जमात के ‘अमीर’ मौलाना साद भी उनसे अपील कर चुके हैं, लेकिन उसे भी अनसुना किया जा रहा है। सवाल है कि न जाने उन छिपे जमातियों में कितने संक्रमित होंगे? और वे कितनों को संक्रमित कर रहे होंगे? उत्पीड़न तो इस देश का और करोड़ों नागरिकों का किया जा रहा है। दुर्भाग्य है कि सत्ता में शिखर ओहदों पर रहे, बेहद शिक्षित और विचारशील ही यह मुद्दा उठा रहे हैं कि कोरोना के दौर में मुसलमानों की एक जमात का उत्पीड़न किया जा रहा है। तबलीगी एक जमात है, लेकिन वह मुसलमानों का पर्याय नहीं है। यह सवाल उठाकर आप पूरे मुस्लिम समुदाय के उत्पीड़न का आरोप नहीं लगा सकते। खुद मुसलमान ही 100 फीसदी इसे नहीं मानते और जमातियों के छिपने को गलत करार देते हैं। उत्पीड़न तो डॉक्टरों, नर्सों, मेडिकल स्टाफ और पुलिसकर्मियों का किया जाता रहा है, जिन्हें देखकर जमाती या उनके समर्थक हिंसक हो उठते हैं। कई घटनाएं हुई हैं, जिन पर इन पैरोकारों ने कोई अफसोस या सरोकार नहीं जताया। धर्म या मज़हब किसी भी संदर्भ में राष्ट्र से बड़ा नहीं होता। गौरतलब यह है कि सऊदी अरब, ईरान, ताजिकिस्तान सरीखे कुछ मुस्लिम बहुल देश ऐसे हैं, जहां तबलीगी जमात पर पाबंदियां हैं या इसका प्रचार-प्रसार नहीं कर सकते। कमोबेश भारत में तो ऐसी व्यवस्था नहीं है। आरोप गंभीर हैं। आप यूं ही सरकार या किसी भी पक्ष पर उत्पीड़न के सवाल नहीं उठा सकते। कमोबेश यह उल्लेख किया गया होता कि उत्पीड़न क्या है और किन परिस्थितियों में हुआ। दरअसल यह क्षुद्र सियासत की कोशिश है। इन नौकरशाहों ने सत्ता में रहते हुए खूब मलाई चाटी है, उनका राजनीतिक-वैचारिक नजरिया भी जगजाहिर है, लेकिन उसे देशव्यापी विमर्श का मुद्दा नहीं बनाया जा सकता। रमजान भी सौहार्द्र, शांति, संयम, इंसानियत, दान, भाईचारे आदि का पर्व है, लिहाजा उसे पूरी भावनाओं के साथ मनाने दो। उत्पीड़न के भाव पैदा कर आपसी रिश्तों में फांस मत चुभोओ। उससे पूर्व नौकरशाहों और उनके राजनीतिक आकाओं को कुछ भी हासिल नहीं होगा। फिलहाल कोरोना के रूप में एक अंतहीन जंग लड़ी जा रही है।