शामी एम् इरफ़ान
फिल्मकारों और पत्रकारों का रिश्ता बहुत पुराना है। प्रिंट मीडिया के कई व्यक्ति पत्रकार से फिल्मकार बनकर दौलत और शोहरत हासिल कर चुके हैं। आज भी कुछ पत्रकार से फिल्मकार, निर्माता, निर्देशक, लेखक और कलाकार बनकर कार्यरत हैं। आज हम सब लाॅक डाउन की विषम परिस्थिति से दो-चार हो रहे हैं। विश्व में ‘कोरोना’ से महामारी फैली हुई है और इसी के रोकथाम हेतु अपने देश में लाॅक डाउन चल रहा है। 21 दिवसीय लाॅक डाउन आरम्भ होने से पूर्व ही मुम्बई में 14 मार्च से ही माॅल और सिनेमा घरों को बंद करा दिया गया था। इस बंदी और फिर इक्कीस दिनों की तालाबंदी ने अच्छे- अच्छों की हालत खराब कर दी है। ऐसे हाल-माहौल में बॉलीवुड के स्वतंत्र मीडिया कर्मियों का हाल-चाल पूछने वाला, उनकी मदद करने वाला क्या कोई है?
यहाँ किसी के भी नाम का उल्लेख नहीं करना चाहता। कोरोना संक्रमण से हर वर्ग के लोगों का हाल बेहाल हो गया है। बड़े-बड़े कलाकार-फिल्मकार और सरकार भी बॉलीवुड के कलाकारों व टेकनीशियंस की मदद के लिए अपना हाथ बढ़ा चुके हैं। दयालु दानवीरों की मुट्ठी खुली है, राहत कहाँ किसे कितना पहुंच रही है, इस पर भी मुझे चर्चा नहीं करनी। क्योंकि, सबको पता है, बॉलीवुड चमक-दमक की दुनिया है और अधिकतर लोग अपने दान का ढिंढोरा पीट कर महज पब्लिसिटी हासिल कर रहे हैं। कभी-कभी दिल में ख्याल आता है कि, लाॅक डाउन के दौरान किसी की नजर स्वतंत्र मीडिया कर्मियों पर क्यों नहीं पड़ी? संकट की इस कठिन घड़ी में कौन है इनका हाल पूछने वाला? क्या कोई इनकी भी सहायता कर रहा है?
प्रश्न पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। बॉलीवुड के व्यक्तियों की सहायता के लिए कई दान दाताओं के नाम सामने आये हैं और बेशक उन्होंने दिल खोलकर दिया है लेकिन बिचौलियों ने बंदरबाट किया है। अपने स्टाफ की कलाकार व फिल्मकार सबने सीधे मदद की और हरेक तक कोई पहुंच नहीं सकता, शायद इसी लिए उन्होंने यूनियन संगठनों के सहयोग से राहत-रकम दिया। कुछ लोगों की चांदी हो गई और कुछ की बदहाली बद से बदतर हो गई। क्योंकि उन जरूरतमंदो तक कोई राहत सामग्री या कोई मदद की धनराशि नहीं पहुंची।
आखिर असली जरूरतमंदो को राहत क्यों नहीं मिलती? सबसे बड़ा कारण है कि, यह किसी की चमचागीरी नहीं करते हैं और बहुत स्वाभिमानी होते हैं। जिसके हाथ ने हमेशा दूसरों को दिया है, वह अपने हाथ को फैलाकर किसी से कुछ कैसे मांग सकता है। यह स्वाभिमानी व्यक्ति किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते, भूखे-प्यासे रह लेते हैं, किसी से न कुछ कहते हैं और न कुछ मांगते हैं और उनकी इस आदत का फायदा दूसरे बड़ी आसानी से उठा लेते हैं।
बॉलीवुड में इस लाॅक डाउन के दौरान बहुत मदद की जा रही है। फिर भी बहुत से लोग सहयोग-सहायता पाने से वंचित हैं। फिल्म यूनियन की अम्ब्रेला यूनियन ने भी एक वर्ग को अपने संज्ञान में नहीं लिया, आश्चर्य की बात है। कलाकारों व फिल्मकारों ने उनके लिए कुछ नहीं किया, आश्चर्य की बात है। आप शायद समझ गये होंगे, वह वर्ग है स्वतंत्र मीडिया कर्मियों का। यहाँ पर यह दलील दी जायेगी कि, उनके लिए भी किया गया है तो, किसे? जो नौकरी कर रहे हैं? जिनको सेलरी मिलती है और जो पत्र-पत्रिका अथवा चैनल के संपादक-मालिक है। अरे, उनको देकर खुश कर दिया तो, आपदा के समय आपने मदद क्या किया? अवसर विशेष पर कलाकारों व फिल्मकारों की तरफ से उनको दिया ही जाता है। उस समय भी इन मीडिया कर्मियों को नजर अंदाज किया जाता है।
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि,यह स्वतंत्र पत्रकार ‘दिया’ का काम करते हैं और अपने आपको जलाकर दूसरों को रोशनी देते हैं। फिल्म जगत के पत्रकार कलाकारों व फिल्मकारों की प्रचार एवम् प्रसिद्धी में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं और इनके बीच सेतु का कार्य करते हैं प्रचारक यानी पी आर ओ। आज पी आर का कार्य कार्पोरेट कम्पनी में तबदील हो गया है। एक-एक पी आर ओ के कई-कई सहायक होते हैं और उनको अच्छा खासा पैसा मिलता है। और सभी इन्हीं स्वतंत्र पत्रकारों की बदौलत अपने काम को अंजाम देते हैं और अपने क्लाइंट से बड़ी रकम लेते हैं। क्या मिलता है स्वतंत्र मीडिया कर्मियों को कभी किसी ने सोचा है?
कुछ देने की जब भी बात होती है तो, स्वतंत्र मीडिया कर्मियों को नजर अंदाज किया जाता है। तब प्रकाशन के प्रमुख हावी हो जाते हैं। बड़े लोग बाॅस को सिर – आखों पर बिठा लेते हैं चाहे वह किसी पत्र के हों या चैनल के। और जब कवरेज की बात आती है तो, यही स्वतंत्र मीडिया कर्मी याद आते हैं। किसी भी साक्षात्कार के समय या इवेन्ट के समय जब भीड़ दिखानी होती है तो, पी आर ओ इनको मैसेज-काॅल करके बुलाते हैं और अपनी प्रेस रिलीज इनको भेजकर यहाँ-वहां प्नकाशित कराने की मिन्नते करते हैं और फिर मतलब निकलने के बाद पहचानते नहीं। क्या किसी पी आर ओ ने ऐसे किसी स्वतंत्र पत्रकार की सहायता करी या लाॅक डाउन में हालचाल पूछा? शायद नहीं। क्योंकि, करीब पचास स्वतंत्र मीडिया कर्मियों से मालूम हुआ कि, जो पी आर ओ कुछ मीडिया कर्मियों को कनवेन्स दिया करते थे, इस दौरान उन्होंने फोन पर बात भी नहीं की और न ही उनका कोई मैसेज आया है।
अफसोस की बात है कि, स्वार्थी सभी हैं। स्वाभिमानी स्वतंत्र मीडिया कर्मियों की भले हेल्प न करिये कम से कम अपने उन चापलूसों की सहायता कर देते या अपने लाखों-करोड़ों की राहत राशि देने वाले किसी क्लाइंट से सहयोग दिला देते तो सच्ची मानव सेवा होती। क्योंकि बॉलीवुड में इनका कोई संगठन नहीं, कोई यूनियन नहीं। कितने सारे लोग इन स्वतंत्र मीडिया कर्मियों को गेट क्रशर का नाम दे देते हैं। हालांकि, इस सच को झुटलाया नहीं जा सकता कि, इन मीडिया कर्मियों के रूप में कुछ फर्जी लोग भी कार्यक्रमों का हिस्सा बनते रहे हैं, जिनका मकसद पार्टियों में खाना, दारू पीना और प्रेसकिट व गिफ्ट लेना होता है और सबको उनकी पहचान भी है। फिर भी किसी की नजरें इनायत नहीं हुई? सब के सब खामोश हैं?
सबको लगता है कि, स्वतंत्र मीडिया कर्मियों को प्रकाशन संस्थानों से बहुत सारा पारिश्रमिक मिलता है तो, आप सब गलतफहमी में हैं। कुछेक प्रकाशन ही अपवाद हैं अन्यथा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि, कुकुरमुत्ता की तरह पनपते प्रकाशन संस्थान किसी को पारिश्रमिक देना ही नहीं चाहते। यह लिखते हुए मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि कुछ प्रकाशन लेखक-पत्रकार से समाचार लेख प्रकाशित करने के लिये पैसे मांगते हैं और ऐसे संपादकों, प्रकाशकों और मालिकों से स्वतंत्र मीडिया कर्मियों को क्या मिलेगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। आज किसी भी पब्लिकेशन्स को किसी की जरूरत नहीं है। गूगल पर कहीं भी कोई खबर आती है और काॅपी पेस्ट कर के पब्लिश करने वाले अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। यह तो जन्म जन्मांतर से भूखे भेड़िया हैं। इनसे कुछ उम्मीद करना स्वतंत्र मीडिया कर्मियों द्वारा अपनी मृत्यु को आमंत्रण देना है। ऐसी परिस्थिति में सिर्फ और सिर्फ बॉलीवुड के दयालु, समझदार, समर्थ व सक्षम लोगों को ही विचार करना होगा या फिर यह स्वतंत्र मीडिया कर्मी खुद अपने आपको पहचाने और अपनी सहायता स्वयं करें। खुदा खैर करे! (वनअप रिलेशंस न्यूज डेस्क)
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यह लेखक का अपना व्यक्तिगत मत है। किसी का सहमत होना आवश्यक नहीं।