कोरोना’ का आतंक दुनिया भर में कहर बरपा रहा है। सौभाग्य से अभी हमारे देश में स्थिति इतनी भयंकर नहीं है जितनी कुछ दिन पहले तक चीन में थी या अब इटली, स्पेन, अमेरिका आदि देशों में है। उम्मीद ही की जा सकती है कि हम जल्द ही इस कहर से उबर जाएंगे। हमारी सरकार की कोशिशें और हमारा अपना मनोबल, हमें इस संकट से उबरने में निश्चित रूप से मददगार होगा। कोई भी अंधेरा चाहे वह कितना भी गहरा क्यों न हो, हमेशा के लिए नहीं होता। सुबह तो होती ही है। अब भी होगी। फिर उजाला होगा। पर हमें यह भी समझना होगा कि यह उजाला भी वैसा ही दाग-दाग होगा जैसा आजादी मिलने के समय फैज अहमद फैज को दिखा था—यह दाग-दाग उजाला, ये शब गजीदा सहर…।
उस उजाले में एक बड़ा, बहुत बड़ा दाग इन काफिलों का भी होगा जो ‘कोरोना’ के डर से घर की ओर भागते लोगों के हैं। शायद गलत है यह कहना कि यह विस्थापन ‘कोरोना’ के डर का परिणाम है। सच तो यह है कि इस विस्थापन के पीछे एक विवशता है, कुछ-कुछ वैसी ही विवशता जैसी रोजगार की तलाश में घर छोड़कर जाने वालों के सामने थी। फर्क यह है कि अब जो भी विवशता है, वह रोजगार के छिनने की है। इस व्यवस्था की मार के कारणों और परिणाम को समझना भी जरूरी है।
आज जबकि सारा देश ‘कोरोना’ के आतंक में जी रहा है, विस्थापन की व्यवस्था की बात करना कुछ असंगत लग सकता है, यह जल्दबाजी भी लग सकती है। पर जरूरी है इस बात को समझना। क्यों विवश होना पड़ा इन लोगों को इस तरह घर छोड़ने के लिए? लॉकडाउन जैसे कर्फ्यू की घोषणा से पहले पलायन की इस आशंका के बारे में क्यों नहीं सोचा गया? लॉकडाउन जरूरी था, यह सही है, पर क्या सही यह भी नहीं है कि अच्छा प्रबंधन समस्या के आगे-पीछे सोचने वाला ही होता है? यह लड़ाई कोई मोर्चा जीतने की नहीं, युद्ध जीतने की है। इसकी रणनीति तैयार करते समय एक नहीं, सब पक्षों को ध्यान में रखने की जरूरत होती है।
बहरहाल अभी ‘घर’ लौटने वाले विस्थापन की ही बात। यह परिवार दिल्ली से बिहार के लिए निकला है। घर के मुखिया के सिर पर एक गठरी है, उसकी पत्नी की गोद में एक छोटा बच्चा। उसका हाथ पकड़े हुए आठ-दस साल की बच्ची है। एक बच्चा, शायद छोटा भाई, इस बच्ची की गोद में भी है। टी.वी. देखने वाला चित्र बहुत साफ है—‘घर’ के मुखिया और महिला की आंखों में अनिश्चितता का एक डर छलक रहा है। बदहवास हैं तीनों चेहरे। वह भीड़ भी बदहवास लग रही है, जिसका हिस्सा यह परिवार है। टीवी का एक रिपोर्टर माइक आगे करके परिवार के मुखिया से पूछता है, कहां जा रहे हो? ‘घर’, वह व्यक्ति उत्तर देता है। क्यों जा रहे हो, यह अगला सवाल है। ‘नहीं जाएं तो करें क्या?’ उत्तर में यह प्रश्न सामने आता है। फिर उसने जो बात बतायी उसका लब्बो-लुआब यह है कि रोजगार है नहीं, पैसे खत्म हो रहे हैं, मकान-मालिक ने निकालने की धमकी दे दी है…। गांव में रोजगार है? इस सवाल के जवाब में कहा जाता है, घर तो है! पता नहीं, किस घर की आशा में देश के महानगरों से निकलने वाले ये काफिले बिना कुछ सोचे-समझे निकल पड़े हैं। कल्पना करना मुश्किल है कि क्या सोचा होगा उन्होंने जब अपने ‘ठिकाने’ से निकले होंगे ये कदम। टीवी वालों से बात करने वाले उस परिवार को जहां जाना था, वह गांव बिहार में है—लगभग 11 सौ किलोमीटर का फासला गूगल बता रहा है, कार से वहां पहुंचने में 20 घंटे लगते हैं! और पैदल पहुंचने में? एक और खबर भी थी टीवी पर। एक व्यक्ति दिल्ली से घर पहुंचने के लिए निकला था। लगभग 200 किलोमीटर पैदल चल चुका था। बस 80 किलोमीटर दूर रह गया था उसका घर। और वह गिर गया। मर गया। घर अभी बहुत दूर था…।
सवाल उठता है, क्यों कोई विवश होता है घर छोड़ने के लिए? क्यों घर के आस-पास रोजगार की व्यवस्था नहीं हो सकती? क्यों सिमटते जा रहे हैं महानगरों में रोजगार? क्यों महानगरों में भी रोजगार की गारंटी नहीं मिलती? क्यों फुटपाथ पर जीना पड़ता है लोगों को? क्यों अस्थाई ही बने रहते हैं शहरों में हमारे श्रमिक? नागरिकता और जनसंख्या के सवालों पर परेशान होने का नाटक करने वाले हमारे राजनेता विस्थापन के लिए विवश करने वाले सवालों से क्यों बचना चाहते हैं? घर की ओर का यह ‘विस्थापन’ इन और ऐसे ढेरों सवालों का जवाब मांग रहा है? कौन देगा इनके जवाब?