झूठ बोलना पाप है, परंतु यह बात आज तक समझ में नहीं आई कि लोग क्योंकर क्षण-क्षण में यह पाप करते हैं? एक बार मैंने झूठ बोला तो मेरे बच्चे ने मुझे टोक दिया-‘पापा, झूठ बोलना पाप होता है।’ मैं मन-ही-मन बड़ा हंसा। सोचा बच्चा है, बड़ा होगा तब पता चलेगा कि झूठ बोलना कितना जरूरी है। मोटे रूप से यह समझ में आती है कि कई बार झूठ प्राथमिक तौर पर लाभान्वित करता है, परंतु किसी ठोस हित का क्रियान्वयन इसके जरिए होता नजर नहीं आया। इसलिए क्षण-क्षण किए जाने वाले इस पाप पर व्यक्ति ही रोकथाम लगा ले तो बुराई नहीं है। अब साहब दुनिया है। किस-किस को रोकेंगे आप सत्य बोलते हैं, वे झूठ बोलते हैं। कम-से-कम प्रजातंत्र की सार्थकता का तो पता चलता है कि आदमी झूठ या सच कुछ तो बोल रहा है। झूठ कहां नहीं बोला जा रहा? यानी आप, हम सब बोलते हैं, फिर पता नहीं क्यों इसे पाप माना गया है? इस विषय पर यदि सविस्तार रिसर्च की जाए तो निश्चय ही इस पाप के साथ न्याय हो, सकने की संभावना है। परंतु रिसर्च नहीं भी हो तो काम चल जाएगा, क्योंकि आजकल इसका व्यापार खूब फल-फूल रहा है। मेरे एक मित्र हैं। लिखते-पढ़ते हैं। अब यदाकदा लिखते हैं, लेकिन जुबान से वे खूब लिखते हैं। एक दिन मैंने उनसे पूछा-‘अमां यार, झूठ बोलना पाप है। जरा यह तो बताओ, क्या लिख-पढ़ रहे हो।’ मित्र ने उसी पाप का सहारा लिया-‘लिखना कुछ विशेष नहीं। दो कविता की किताबें दिल्ली से आ रही हैं तथा एक कहानी संकलन लोकल पब्लिशर छाप रहा है।’ दो वर्ष बाद फिर पूछा-‘क्यों भाई, क्या आ रहा है?’ वही बात-‘एक उपन्यास और आलोचना की पुस्तक आ रही हैं।’ मैंने कहा-‘अमां यार, आलोचना-उपन्यास भी लिखने लगे? मूलतः तुम तो कवि हो।’ ‘हां… पिछले दिनों से इसमें भी हाथ आजमा रहा हूं और मजे की बात कि सभी तरह की विधाओं में मेरी पुस्तकें छापने को प्रकाशक भी तैयार हैं।’ मित्र ने जवाब दिया। ‘परंतु वे कविता व कहानी संकलन आए नहीं, जो दो वर्ष पूर्व आ जाने चाहिए थे?’ ‘अरे भाई, वे तो अभी मैंने तैयार ही नहीं किए हैं।’ कहने का मतलब यह है कि उन्हें झूठ का इतना अच्छा अभ्यास हो गया है कि याद ही नहीं रख पाते कि एक आदमी से वे साल भर पहले क्या कह चुके हैं। -अनूप