पंडित जॉन अली पहले तो गुनगुनाते रहे। लेकिन ठंडे मौसम का मज़ा लेते हुए जब शरीर में गर्मी आने लगी तो उनका गुनगुनाना तेज़ होने लगा। मैं अपनी बालकनी में बैठा अ़खबार पढ़ रहा था। उनके गाने के बोल मेरे कानों में पड़े तो मैं भी छत पर पहुंच गया। गाना चौथे दशक की ़िफल्म का था किंतु पंडित जी उसे पैरोडी की चासनी में डुबोए अपनी दुनिया में मस्त थे। मैं बोला, ‘‘ पंडित जी, आपने सलोनी रुत और सलोने मौसम को भी कोरोना बना दिया। गाना तो है-रुत है सलोनी, मौसम सलोना सलोना रे। आपने इसमें सलोना की जगह कोरोना कहां घुसेड़ दिया।’’ अपनी दुनिया में खोए पंडित जी अचानक बाहर आते ही बोले, ‘‘अमां यार! तुमसे कितनी बार कहा है कि बिना दुआ-सलाम के मत टोका करो। ऐसे लगता है मानो किसी ने सुहाना सपना देखते हुए च्यूंटी काट दी हो। अब अगर रुत और मौसम दोनों कोरोना हैं तो मैं सलोना कैसे गाऊं। जिसे देखो बेचारा कोरोना से परेशान है। यहां तक कि ट्रंप और किम जोंग जैसे बहरूपियों को भी कोरोना के बादलों ने ढक लिया है। ़खबरों में पिछले कल ट्रंप भी किम जोंग की चिंता में दुबले होते दिखे।’’ मैं बोला, ‘‘पंडित जी, कोरोना तो हो सकता है अपने साथ कई लाख ले जाने के बाद चला भी जाए। लेकिन किम जोंग को कुछ हो गया तो ट्रंप किसके साथ मुंहज़ोरी करेंगे। चौबीस घंटे तो विकास और दुनिया को घुड़काने की बातें हो नहीं सकतीं। मनोरंजन तो अपना भी ज़रूरी है और दुनिया का भी। मियां-बीवी भी तो हरदम इश़्क-मुहब्बत की बातें नहीं कर सकते। खाना पचाने के लिए बहस-मुबाहिसा तो ज़रूरी है। इसीलिए लॉकडाऊन में जब घरों से बाहर निकलना मुश्किल हुआ तो घरेलू हिंसा में अचानक बढ़ोतरी की ़खबरें सामने आने लगीं। कुत्ते-बिल्ली में वैर वाला मुहावरा तो इन दिनों चरितार्थ होता हुआ दिखा।’’ जॉन अली बोले, ‘‘यार, बा़की तो ठीक है। मैं सोच रहा था कि भारत में तो अब तक कोरोना को दूध की बाढ़ में बह जाना चाहिए था।’’ मैंने कहा, ‘‘मैं समझा नहीं। भारत वैसे ही दुनिया में दूध का सबसे उत्पादक देश है।’’ वह बोले, ‘‘हद करते हो मियां। इसमें समझने वाली क्या बात है। तुम्हें तो पता ही है आजकल तमाम दफ्तर, होटेल, रेस्टोरेंट, ढाबे, चाय और हलवाइयों की दुकानें बंद हैं। घरों में कितना दूध लग जाता होगा? ऐसे में बा़की दूध कहां जा रहा है? उसे तो नालियों या सड़कों में बहते दिखना चाहिए था या बीस रुपए किलो बिकना चाहिए था। बेचारे फूड इंस्पेक्टरों सहित कितने अ़फसर और कर्मचारी मक्खियां मार रहे होंगे। आम दिन होते तो कहीं नकली दूध पकड़ा जाता तो कहीं मावा। देशी घी ढूंढ़े नहीं मिल रहा। सुंदरियां भी दूध में नहीं नहा रहीं। बेचारी वे तो भौंहों और लिप लाइन के जाल में उलझी पड़ी हैं। सौंदर्य में वृद्धि करने वाली दूध-क्रीम का निर्माण भी बंद पड़ा है। राम जाने ़खबरिया चैनल न जाने कैसे दूध और उससे बनने वाले उत्पादों की ़खबर लेने से बे़खबर रह गए।’’ मैं बोला, ‘‘पंडित जी, कहते तो बिलकुल ठीक हैं। दिन पर दिन लोगों का मोह पशुपालन और खेती से टूट रहा है। लेकिन दूध और अन्न उत्पादन में हर साल बढ़ोतरी दर्ज हो रही है। वैसे कोरोना ने आजकल पति-पत्नियों को एक-दूसरे को समझने का जितना मौ़का दिया है, उससे तो लगता है कि अब सात जन्मों के साथ वाली धारणा टूटने वाली है। अब सप्तपदी में बदलाव का समय आ चुका है।’’