अच्छा किया कि सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर आरक्षण की व्याख्या कर दी। सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट किया है कि संविधान का अनुच्छेद 32 उनके लिए उपलब्ध है, जिनके मौलिक अधिकारों का हनन हुआ हो और आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। यह एक सीमा के दायरे में सरकारों का नीतिगत फैसला हो सकता है, लेकिन आरक्षण को लेकर कोई भी मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकता। चूंकि याचिकाएं राजनीतिक किस्म की थीं और संविधान की परिधि से बाहर की थीं, लिहाजा सर्वोच्च अदालत ने उन्हें सुनने से ही इंकार कर दिया। इतनी गुंजाइश जरूर रखी कि याचिकाकर्ता उच्च न्यायालय में जा सकते हैं। मुद्दा तमिलनाडु में मेडिकल की स्नातक, पीजी और डिप्लोमा सीटों पर ओबीसी आरक्षण का था। सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के साथ-साथ प्रमुख विपक्षी दल द्रमुक, एमडीएमके, पीएमके और वामपंथी दलों ने भी याचिकाएं दी थीं। आरक्षण तमिलनाडु की राजनीति का बुनियादी मुद्दा रहा है। चूंकि अगले साल मई में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा बहुसंख्यक ओबीसी को रिझाने की एक कोशिश की गई। आरक्षण पर राष्ट्रीय बहस छिड़ती रही है। कई बार आरक्षण चुनावी मुद्दा भी बना, लेकिन आज आरक्षण उन मायनों में असंगत और अप्रासंगिक लगता है, जिनके आधार पर संविधान सभा ने आरक्षण की व्यवस्था की थी। सामाजिक और आर्थिक विषमताओं और विसंगतियों को समाप्त करने के मकसद से सिर्फ 10 साल के लिए आरक्षण तय किया गया था। अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्थाएं की गईं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाते हुए आदेश भी दिया था कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए, लेकिन यह हदबंदी कई बार टूटी है। मराठा, गुर्जर, जाट आदि समुदायों ने आरक्षण के लिए लंबे-लंबे जन-आंदोलन छेड़े। सरकारों को चेताया और धमकाया भी गया। रेल की पटरियों पर बैठकर रेल-यात्रा को बाधित भी किया गया। राजधानी दिल्ली का दूध, पानी, फल-सब्जियां रोकने के प्रयास भी किए गए। आंदोलन हिंसक भी हुए। नतीजतन ओबीसी के राज्य कोटे में ही 5-7 फीसदी आरक्षण के आश्वासन आंदोलनवालों को देने पड़े या कुछ राज्यों को यह कानून लागू तक करना पड़ा। सिर्फ 10 साल की व्यवस्था आज 73 साल के बाद भी जारी है, क्या सरकारों, राजनीतिक दलों और संबद्ध संगठनों ने इसका मूल्यांकन किया है? चिंता सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की थी। आरक्षण की कृपा से आरक्षित वर्ग के चेहरे आईएएस ही नहीं बने, बल्कि आईएएस वंश के तौर पर भी पहचान मिली। आईएएस, आईपीएस के अलावा अखिल भारतीय स्तर की सरकारी नौकरियों में भी ऊंचे ओहदे मिले। बड़े बंगलों और महंगे फ्लैटों में रहते हैं। बच्चों को शैक्षिक होड़ में आरक्षण मिलता रहा, लिहाजा वे भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके या विदेश चले गए। संसद में लोकसभा की 543 सीटों में से 84 अनुसूचित जाति और 47 जनजाति के सदस्यों के लिए आरक्षित हैं। देश की कुल विधानसभाओं में 4120 सीटें हैं। उनमें से 614 अनुसूचित जाति और 554 जनजाति के सदस्यों के लिए आरक्षित हैं। राजनीतिक समीकरण कुछ भी हो, लेकिन दलित और जनजाति के कोटे से मंत्री बनाना भी विवशता है। यूं देखा जाए, तो आरक्षण ने विभिन्न जातियों और वर्गों को सशक्त ही बनाया है, लेकिन उन्हें आरक्षण अब भी चाहिए। देश में करीब 30 करोड़ नागरिक गरीबी रेखा के तले जीने को अभिशप्त हैं और करीब 20 करोड़ अन्य लोग हैं, जो किन्हीं भी कारणों से गरीब हैं। करीब 50 करोड़ की आबादी बुनियादी तौर पर गरीब है। क्या वे आरक्षण के दायरे में नहीं हैं? यदि वे भी आरक्षण के लिए पात्र हैं, तो उन्हें आरक्षण क्यों नहीं दिया गया? यदि आरक्षण दिया गया, तो आर्थिक और सामाजिक गुरबत उनकी जिंदगी में क्यों है? दरअसल आरक्षण का मूल्यांकन इसी आधार पर किया जाना चाहिए। पिछड़ा और गरीब होने के लिए जो सालाना आमदनी के चौखटे सरकारों ने तय कर रखे हैं, वे भी गलत हैं। उस दृष्टि से आरक्षण पाने वाली जातियां तो धन्नासेठ हो गई हैं और आर्थिक सवर्ण पिसता जा रहा है, क्योंकि उसके लिए आरक्षण चौतरफा नहीं है। अब मोदी सरकार ने ढेरों शर्तों के साथ 10 फीसदी आरक्षण सवर्ण गरीबों के लिए तय किया है। बहरहाल यह बेहद संवेदनशील मुद्दा है। अब इसमें राजनीतिक तौर से संशोधन करना असंभव है, लिहाजा सर्वोच्च अदालत को ही संज्ञान लेते हुए कोई फैसला सुनाना होगा। – अनिल अनूप