अपने देश में बरसात के दिनों में शहरों के आधारभूत ढांचे की पोल पूरी तरह खुल जाती है। शायद ही कोई शहर हो जो बारिश के बाद जलभराव और गंदगी से पटा न दिखता हो। शहरी ढांचे के जर्जर होने का एक प्रमुख कारण यह है कि उनके विकास प्राधिकरण और नगर निगम दूरगामी दृष्टि रखते हुए आधारभूत ढांचे का निर्माण करने और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने में नाकाम हैं। अक्सर शहरों में नया बना आधारभूत ढांचा पांच-छह साल बाद ही बढ़ती जनसंख्या के कारण नाकाफी लगने लगता है। आखिर इसका क्या मतलब कि हर 10-15 साल बाद आधारभूत ढांचे के निर्माण में धन व्यय करना पड़े? इस निर्माण के दौरान जो तोड़फोड़ होती है, उससे लोगों को भारी परेशानी उठानी पड़ती है। परेशानी का यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता, क्योंकि कुछ न कुछ बनता ही रहता है।
चूंकि जो गांव और ग्रामीण क्षेत्र शहरों का हिस्सा बन जाते हैं, वहां के आधारभूत ढांचे को सुधारने की कोई पहल नहीं की जाती इसलिए वहां अनियंत्रित निर्माण होता रहता है। इन गांवों की अधिग्रहीत और गैर-अधिग्रहीत जमीनों पर बेतरतीब निर्माण कार्य भी जमकर होते हैं और अतिक्रमण एवं अवैध कब्जे भी। इसी कारण वहां जनसंख्या घनत्व तेजी से बढ़ता जाता है और फिर वह आसपास के इलाकों के आधारभूत ढांचे को अपनी चपेट में लेकर उसे ध्वस्त करने लगता है। ऐसे इलाके गंदगी, अतिक्रमण, ट्रैफिक जाम, प्रदूषण से जूझने लगते हैं। धीरे-धीरे वे बीमारियां फैलाने की जड़ बन जाते हैं। कोविड महामारी के दौरान यह सामने आया कि अत्यधिक घनी आबादी वाले इलाकों में कोरोना वायरस का संक्रमण कहीं तेजी से फैला। गांवों से पलायन करके आने वाले अधिकांश कामगार शहर के गांवों या फिर उनके आसपास बसी अनियोजित कॉलोनियों में आकर ही रहते हैं। ऐसे इलाकों में आबादी का घनत्व रोकने के लिए न तो शहरी विकास से जुड़ी एजेंसियां सतर्क होती हैं और न ही राज्य सरकारें। उलटे राजनीतिक संरक्षण के कारण इन क्षेत्रों में होने वाले अनियोजित निर्माण पर कोई रोक भी नहीं लगती। नतीजा यह होता है कि ऐसे इलाके रहने लायक नहीं रह जाते। होना तो यह चाहिए कि चाहे अधिकृत क्षेत्र हों या अनधिकृत, उनमें लगभग एक समान मापदंड से विकास होना चाहिए। इससे किसी एक क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा आबादी की बसाहट को रोका जा सकता है।
शहरों के नियोजित विकास का भार जिन शहरी निकायों पर है, उन्हें सक्षम और जवाबदेह बनाने में राज्य सरकारों के अलावा सभासदों, मेयरों और विधायकों की भी जिम्मेदारी है, लेकिन इस मामले में उनका योगदान मुश्किल से देखने को मिलता है। इसी कारण शहरी निकाय अव्यवस्था एवं भ्रष्टाचार के अड्डे बनकर रह गए हैं। इन निकायों में जनता का शायद ही कोई काम बिना लेन-देन होता हो। वैध काम के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है। सभासद से लेकर मेयर और विधायक तक इस भ्रष्टाचार से बेपरवाह होकर इसमें जुटे रहते हैं कि उनके मन मुताबिक काम कैसे हो या फिर न हो? उनकी मुख्य चिंता अपने वोट बैंक को प्रश्रय देने की होती है, भले ही वह अनियोजित कॉलोनियों और झुग्गी बस्तियों में बसा हो। शहरों की अनियोजित कॉलोनियों का सही ढंग से विकास तब तक संभव नहीं, जब तक नियोजित विकास के लिए जिम्मेदार लोगों और खासकर सभासदों, मेयर और विधायकों को कोई कड़वी गोली नहीं दी जाती। शहरों के नियोजित विकास हेतु जनप्रतिनिधियों की जबावदेही तय करने के लिए कोई ऐसा तंत्र विकसित होना ही चाहिए, ताकि उनके कामकाज का सतत आकलन हो सके। यह आकलन इस तरह होना चाहिए कि जनप्रतिनिधि और खासकर सभासद एवं मेयर इसे लेकर चिंतित रहें कि यदि जनता उनके कामकाज से नाखुश हुई तो उन्हें हाशिये पर जाना पड़ सकता है या फिर उनके अधिकारों में कटौती हो सकती है। अभी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं इसलिए मनमानी होती रहती है और उसके चलते हमारे शहर दुर्दशा से दो-चार होते रहते हैं।
पिछले कई दशकों से केंद्र सरकारें शहरी विकास की तमाम योजनाएं लेकर आई हैं। इन योजनाओं के तहत राज्यों को खासा धन मुहैया कराया गया, लेकिन शायद ही कोई योजना ढंग से परवान चढ़ पाई हो। केंद्र के धन से कुछ शहरों में आधारभूत ढांचे जरूर खड़े किए गए, लेकिन वे शहर विशेष की सूरत बदल पाने में सक्षम नहीं हुए। इस समय देश के कई शहरों में मेट्रो का निर्माण हो रहा है, लेकिन यह कहना कठिन है कि अकेले मेट्रो के निर्माण से शहरी विकास नियोजित होने लगा है। फ्लाईओवर, मेट्रो आदि के निर्माण को इंगित कर अपनी पीठ ठोंकने वाले नेता और नौकरशाह यह देखने को तैयार नहीं कि विकसित और यहां तक कि कुछ विकासशील देशों ने अपने शहरों का विकास किस तरह किया है। आज देश का कोई भी बड़ा शहर विश्व के विकसित देशों के शहरों जैसा नहीं दिखता। पड़ोसी देश चीन का शहरी विकास देखकर हमारे उन नीति-नियंताओं को शर्मिंदा होना चाहिए, जो मुंबई को शंघाई या फिर कोलकाता को लंदन जैसा बनाने के वादे करते रहे हैं। यदि हमारे शहरों की सूरत नहीं संवर रही तो इसके लिए धन का अभाव कम, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी अधिक जिम्मेदार है।
-अनूप
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