1- गांधीगीरी पर भारी पड़ रही मोदीगीरी
2- छप्पन इंच की कायरता
3- पीएम पद की गरिमा की हो रही नीलामी
आज के दौर में भारत के राजनीतिक दंगल का सबसे मजबूत पहलवान वह है जो खुद को गरीब भूखा और सताया हुआ साबित कर सके। राजनीति में इस परंपरा के संस्थापक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। 2014 के चुनाव में उनकी गरीबी ही लोगों की सहानुभूति पाने का सबसे बड़ा कारण बनी। ताजा मामला भी सहानुभूति पाने का ही है। जहां वे पंजाब, किसान आंदोलन और कांग्रेस को बदनाम करते हुए फिर एक बार सहानुभूति के घोड़े पर सवार होते दिखाई दे रहे हैं।
मौजूदा प्रधानमंत्री की सबसे खास बात यह है कि वे राष्ट्र की छवि को अपनी वोट की राजनीति से हमेशा नीचे रखते हैं। यही पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांग करके उन्होंने साबित किया था। यहां भी उन्होंने अपनी जान को खतरा बताकर अपने काडर को जाग जाने का मूक आह्वान किया है। एक देश की दुनिया में छवि क्या होगी जब वहां का प्रधानमंत्री अपनी जान का खतरा बता रहा होगा। आए दिन हमें सीमा पर चीन की गुस्ताखियों की खबर सुनने को मिलती है। क्या ऐसे में प्रधानमंत्री को दुनिया को यह संदेश देना चाहिए कि मैं खुद इस देश में सुरक्षित नहीं हूं। जबकि देश में ऐसी कोई समस्या है ही नहीं। उनके द्वारा सजाए गए रंगमंच का पर्दाफाश हो चुका है। जहां वे खुद की जान का खतरा बता रहे थे वहां से झंडा लहराते भाजपाइयों का वीडियो जन-जन तक पहुंच चुका है। क्या उन्हें अपने भाजपाइयों से खतरा था। लेकिन उन्होंने वैश्विक समुदाय को देश में जो आंतरिक कलह का संदेश दे दिया है उसकी भरपाई अब इस पर्दाफाश से संभव नहीं है।
खुद के 56 इंच के सीने वाले होने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री ने अपने कायर होने का संदेश दुनिया को दे दिया है। दूसरे के घर पर पत्थर फेंकने वाली भाजपा का घर खुद शीशे से बना है। वरिष्ठ पत्रकार रमेश पारिदा ने अपने फेसबुक पोस्ट में 1991 का एक वाकया याद करते हुए बताया है कि तत्कालीन कार्यवाहक प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की फ्लीट पर भाजपाइयों ने जय श्रीराम के नारे लगाते हुए पत्थर फेंके थे। लेकिन तब आज की तरह कोई बवाल नहीं हुआ था।
सवाल यह है कि चोर दरवाजे से जनता की सहानुभूति हासिल कर अपना राजनीतिक डंका बजाने वाले प्रधानमंत्री के पूर्ववर्ती भी उतने ही कायर थे क्या? देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1947 में दिल्ली में फैले मुस्लिम विरोधी दंगों से कुछ अलग ही तरीके से निबटे थे। कनॉट प्लेस में दंगाइयों के द्वारा जब मुसलमानों की दुकानें लूटी जा रही थी तो वहां से नेहरू जी का निकलना हुआ। उन्होंने देखा कि वहां पर तैनात पुलिसकर्मी मूकदर्शक बने खड़े हैं। उन्होंने असीम साहस का परिचय देते हुए एक पुलिस वाले के हाथ से डंडा छीन लिया और उसी डंडे से दंगाइयों को दौड़ाने लग गए। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद में जब खालिस्तान आंदोलन चरम पर था तब सुरक्षा एजेंसियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को इनपुट्स दिए कि वे अपनी सुरक्षा में तैनात सिख सुरक्षाकर्मियों को निकाल दें। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से हरगिज मना कर दिया। उनका कहना था कि इससे समाज में संदेश जाएगा कि प्रधानमंत्री को अपने नागरिकों पर विश्वास नहीं है। अपनी जान गवां कर भी उन्होंने राष्ट्रीय एकता को कायम रखा।
अपने तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के लिए प्रधानमंत्री ने किसानों के आंदोलन को बदनाम करने के उद्देश्य से अपनी जान के खतरे का झूठा बहाना बना कर जनता के विरोध के अधिकार पर करारी चोट लगाई है। उन्हें अपने राजनीतिक गुरु अटल बिहारी वाजपेई की ही बात याद रखनी चाहिए कि “सरकारें आती-जाती रहेंगी लेकिन देश रहना चाहिए”। देश के प्रबुद्ध नागरिकों को प्रधानमंत्री के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार की मांग जरूर करनी चाहिए।
मृदुल कृष्ण मिश्रा
स्वतंत्र पत्रकार कानपुर