जन गण के मन में पीडाऐं , कब तक सहें अघ ताप को।
लाचारी बेजारी बेबस, वृथा समझाऐं व्यर्थ आप को।।
यहाँ काग की बारहमासी, गिद्धों की पौ बारह जी।
हंसों को वनवास भुगतना, लुटी जा रही आराजी।।
व्यष्टिवाद की सोच घिनौनी, अधोगमन की उल्काऐं।
स्यंदन राज का दुर्गम पथ पर , लोलुप थामें वल्गाऐं।।
कालचक्र गतिमान निरंतर, जीव घूमता चरखी में।
ओझल सच के पाँव पावनी,मिथ्य आचरण सुर्खी में।।
खादी का मेहमान जुर्म अब , रखे लहू से ढिंग नाता।।
स्याही के किरदार अनेकों , उन्हें विखण्डन हिय भाता।।
दौलत वाले निर्बल बनकर , दुहते गैया सरकारी।
गण गणना अब नाम हिराया, खादी को मत हितकारी।।
सबकी आंखों में एक चेहरा , अक्सर ही मिल जाएगा।
तन्हाई के लम्हें पाकर,प्रखर मौन मन गाएगा।।
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प्रखर दीक्षित
फर्रूखाबाद