अनिल अनूप
कोरोना महामारी के खिलाफ देशव्यापी लॉकडाउन के 10 दिन बीत चुके हैं। लगभग आधा समय गुजर चुका है। शेष वक्त भी फुर्र से उड़ जाएगा। इस बीच हमारे सामने दो महत्त्वपूर्ण वक्तव्य हैं-प्रधानमंत्री मोदी का तीसरा राष्ट्रीय संबोधन और ब्रिटेन के प्रख्यात चिकित्सक डा. दीपांकर बोस का कंपा देने वाला आकलन। बेशक यह संकटकाल है और देश के सेनापति के तौर पर प्रधानमंत्री ने आह्वान किया है कि कोरोना से उपजे अंधकार को दूर करने के मद्देनजर कल रविवार 5 अप्रैल, रात्रि 9 बजे, 9 मिनट तक अपने-अपने घरों की लाइटें बंद करें और दहलीज या बॉलकनी में आकर मोमबत्ती, दीया, टॉर्च या मोबाइल की लाइट जलाएं। बेशक हमारी संस्कृति में प्रकाश का दैवीय महत्त्व है और प्रकाश-पुंज नई ताकत, नई उम्मीद, नया मनोबल प्रदान करता है। इस घोषित बे-मौसमी ‘दीवाली’ से प्रधानमंत्री का मकसद हो सकता है कि कोई भी देशवासी अकेला महसूस न करे। प्रकाश के उन पलों से भारत की दिव्य, भव्य सामूहिकता भी उजागर हो सकती है। कई चिकित्सकों ने प्रधानमंत्री के इस संबोधन का आकलन मनोविज्ञान, खासकर कोरोना पीडि़तों की मनोस्थिति के आधार पर भी किया है। संबोधन में आध्यात्मिकता का भाव भी है और उस संदर्भ में प्रधानमंत्री एक ‘धर्मगुरु’ प्रतीत हुए। प्रधानमंत्री पहले भी ऐसी अपील कर चुके हैं कि धर्मगुरु अपनी विचारधारा वालों को अपने समर्थकों को समझाएं, ताकि वे मौजूदा लड़ाई में भागीदारी कर सकें। बेशक निराशा, अनिश्चितता और अंधकार के इस दौर में प्रधानमंत्री देश के 138 करोड़ नागरिकों को एकजुट रखना चाहते हैं और कोरोना के खिलाफ उनकी लड़ाई को जारी रखते हुए अंतिम जीत के लक्ष्य को जिंदा रखना चाहते हैं, लेकिन ‘दीवाली’ की भावनाओं और उल्लासों के साथ-साथ वे चेतावनियां भी हैं, जो विदेशों में सक्रिय भारतीय मूल के चिकित्सकों के जरिए हम तक पहुंच रही हैं। बेशक विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हमारे लॉकडाउन के प्रयास को सराहा है और उसे विकासशील देशों के लिए एक उदाहरण भी माना है। संगठन ने हमारी सरकारों के आर्थिक, भोजन और इलाज संबंधी प्रयासों की भी सराहना की है। विश्व के भारत मूल के कई चिकित्सा विशेषज्ञ भी लॉकडाउन को यथासमय उठाया गया कदम मानते हैं, लेकिन ब्रिटेन में बसे डा. दीपांकर बोस सरीखे कइयों ने चेतावनियां भी जारी की हैं और वे बेहद खौफनाक लगती हैं। डा. बोस का आकलन है कि यदि इस स्तर पर भी भारत में सामाजिक दूरी का पालन नहीं किया जाता रहा और संक्रमण को फैलने से नहीं रोका गया और हालात बेकाबू होते रहे, तो भारत में करीब 2 करोड़ लोग भी कोरोना के कारण मर सकते हैं। डा. बोस इस संदर्भ में दिल्ली और आसपास प्रवासी मजदूरों की भीड़ को एक बड़ा संवेदनशील मामला मानते हैं। उनका मानना है कि अभी तक भारत सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं आया है कि उनमें कितने संक्रमित थे और उन्होंने किस-किस स्तर पर कोरोना वायरस का संक्रमण फैलाया है। डा. बोस ने दिल्ली का ही उदाहरण देते हुए कहा है कि वहां एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में औसतन 12,000 लोग बसे हैं, जबकि अमरीका, ब्रिटेन, इटली आदि देशों में यह आंकड़ा बहुत कम है। यानी भारत में लोगों के दरमियान फासला ही नहीं है, तो कोरोना संक्रमण को नियंत्रित कैसे किया जा सकता है? प्रधानमंत्री ने तीसरे संबोधन में भी सामाजिक दूरी और अपने घर तक सिमटे रहने का आह्वान किया है। सवाल है कि या तो भारतीय जनता प्रधानमंत्री की अपीलों को सुनती-समझती नहीं है अथवा कोरोना के जानलेवा प्रभावों के प्रति वह अब भी जागरूक या चिंतित नहीं है? ये सवाल इसलिए भी हैं, क्योंकि भारत के शहरों, कस्बों, बाजारों में राशन या किसी अन्य सेवा को प्राप्त करने के लिए जो लंबी-लंबी लाइनें लगी हैं, उनमें एक व्यक्ति दूसरे से लगभग सटा हुआ मौजूद है। सामाजिक दूरी रखने के अभियानों का क्या होगा? और इस चरण में भी हम नहीं चेतते हैं, तो दुनिया के बड़े डाक्टर क्या कर सकते हैं? ऐसी हकीकतों के दौरान ‘दीवाली’ सरीखे प्रयोग कुछ प्रभावी हो सकते हैं, लेकिन उनसे कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई जीत में तबदील नहीं हो सकती।