अनिल अनूप
केंद्रीय कैबिनेट ने स्वास्थ्यकर्मियों को लेकर अध्यादेश के जरिए एक बड़ा फैसला लिया है। डॉक्टरों, नर्सों, मेडिकल स्टाफ पर थूकने, पत्थर मारने या हमला करने की सजा अब 7 साल की जेल होगी। जुर्माना भी 5 लाख रुपए तक वसूला जा सकेगा। वाहन और क्लीनिक में तोड़-फोड़ करने वालों को नुकसान का दोगुना हर्जाना देना पड़ेगा। ऐसे हमले गैर-जमानती और संज्ञेय करार दिए गए हैं। करीब 123 साल पुराने महामारी अधिनियम में संशोधन कर कैबिनेट ने अध्यादेश पारित किया है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी हस्ताक्षर कर अपनी स्वीकृति दे दी है। गौरतलब यह है कि सिर्फ 30 दिन के अंतराल में जांच पूरी करनी होगी और एक साल में अदालती निष्कर्ष भी आना चाहिए। कोरोना वायरस का दौर तो अब है, लेकिन स्वास्थ्यकर्मियों पर हमले किए जाते रहे हैं और यह बड़े सुनियोजित तरीके से किया जाता है। ऐसे हमलों में हमारे ‘ईश्वर तुल्य’ डॉक्टरों की हत्या तक हुई है। अलबत्ता मौजूदा हमलों में वे गंभीर रूप से घायल जरूर हुए हैं। दिल्ली की एक महिला डॉक्टर मानसिक तौर पर इतनी पीडि़त हुई कि कई दिनों तक अस्पताल नहीं आईं। असुरक्षा का यह यथार्थ डॉक्टर कई स्तरों पर झेलते रहे हैं। कोरोना मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टरों को उनके मकान मालिकों ने घर खाली कर देने का फरमान सुनाया था। कोई आवासीय सोसायटी ऐसे डॉक्टरों को अपने बीच नहीं रखना चाहती, जो हर समय कोरोना मरीजों के बीच रहते हैं, उनका इलाज करते हैं, लेकिन सामाजिक आशंका यह है कि वे डॉक्टर ही कोरोना का संक्रमण फैला सकते हैं। ऐसी बददिमाग ख़बरें सामने आती रही हैं। देश के गृहमंत्री अमित शाह और दिल्ली पुलिस आयुक्त को हस्तक्षेप करना पड़ा, नतीजतन समस्याएं कुछ हल हुईं। अलबत्ता आशंका और यथार्थ दोनों अब भी मौजूद हैं। दरअसल डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों की अस्पताल में ही सुरक्षा का मुद्दा एक लंबे अंतराल से उठता रहा है, लेकिन अब अध्यादेश के जरिए विशेष कानून तब बनाया गया है, जब डॉक्टरों के संगठन आईएमए ने, विरोध के प्रतीकस्वरूप, 23 अप्रैल को मोमबत्ती मार्च निकालने की घोषणा की थी। यदि इस आपदा-काल में डॉक्टर कुछ घंटों के लिए सड़क पर उतरते, तो तय है कि भारत की छवि भंग होती। इस छवि पर पहले ही कई सवालिया निशान और धब्बे हैं कि भारत में स्वास्थ्यकर्मियों को मारा-पीटा तक जाता है, उन्हें उत्पीडि़त किया जाता है, जबकि दुनिया के किसी भी देश में यह कुत्सित प्रवृत्ति नहीं है। लेकिन यह ज़ीरो टॉलरेंस का कानून बनाया गया है। डॉक्टर मज़हबी हमले का शिकार भी होते आए हैं। इंदौर, गाजियाबाद, द्वारका, नरेला, औरंगाबाद, मोतिहारी और मुरादाबाद आदि शहरों में एक ही समुदाय के लोगों ने डॉक्टरों पर या तो हमले किए अथवा अपशब्दों का प्रयोग किया या अश्लील व्यवहार किया। न तो मानवीय मूल्यों की चिंता की और न ही स्वास्थ्यकर्मी की इंसानी गरिमा का सम्मान किया। मुरादाबाद में तो डॉक्टर को गंभीर रूप से घायल कर दिया। क्या एक कानून बना देने से ऐसी अमानवीय हरकतें थम जाएंगी? क्या सांप्रदायिक हमलावरों पर भी लगाम लगेगी? ये सवाल फिलहाल तो सवाल ही हैं, क्योंकि अभी तो कानून की अधिसूचना जारी हुई होगी, लिहाजा इसके नतीजों की प्रतीक्षा करेंगे, लेकिन हमारा मानना है कि इस कानून के अलावा डॉक्टरों को पर्याप्त सुरक्षा दी जानी चाहिए। यह दौर सिर्फ डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों का है। यदि कोई डॉक्टर घायल होता है या हमले में मौत हो जाती है, तो वह ऐसा एहसास होगा मानो ईश्वर ने असंख्य प्राण ले लिए हों! कोरोना के दौर में 21,000 से ज्यादा संक्रमित हुए हैं, तो 4200 से ज्यादा स्वस्थ होकर घर भी लौटे हैं। यह किसकी मेहनत और किसका हुनर है? बहरहाल अध्यादेश के जरिए बना कानून स्वागतयोग्य है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के बाद कोई अंतिम प्रतिक्रिया दी जा सकती है।