अनिल अनूप
क्या ‘भगवान के देश’ केरल में एक गर्भवती हथिनी की बेरहमी और क्रूरता से हत्या की जा सकती है? क्या इस ‘आदर्श राज्य’ में बारूद खुला मिलता और बिकता है? क्या घरों में फलों वाले बम भी बनाए जाते हैं? अत्यंत विस्फोटक और खतरनाक संकेत हैं! ये सिर्फ सवाल नहीं हैं, बल्कि सत्यापित सच हैं। एक साथ दो-दो हत्याएं….! हथिनी की कोख में बच्चा भी पल रहा था। उस अजन्मे बच्चे को तो अभी यह दुनिया देखनी थी, लेकिन मां के साथ वह भी मारा गया। कमोबेश केरल के संदर्भ में यह सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों की हत्या करार दी जा सकती है। केरल में मंदिरों से जुड़े उत्सवों और जुलूसों में हाथी की उपस्थिति किसी आस्था से कम नहीं है, लेकिन क्रूरता, हैवानियत और पाशविक प्रवृत्ति इतने चरम पर रही होंगी कि गर्भवती हथिनी को भी नहीं छोड़ा। उसे विस्फोटक फल खिला कर हत्या कर दी गई। बेशक कई राज्यों में जंगली सूअर, भालू, बंदर आदि जानवरों के लिए फलों वाले विस्फोटक तैयार किए जाते रहे हैं। अनानास ही नहीं, पपीता, तरबूज में भी पटाखे लगाकर रखे जाते हैं। जानवर उन्हें खाने की कोशिश करते हैं, तो वे फट पड़ते हैं और जानवरों के जबड़े क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। जानवरों की मौत भी हो जाती है। यह हिंसक और दरिंदगी भरा प्रयोग फसलों को बचाने के मद्देनजर किया जाता रहा है। केरल में इस घटना के बावजूद सैकड़ों बारूद वाले फल बरामद किए गए हैं। ये विस्फोटक फल किसी भी जानवर के मुंह तक पहुंच सकते हैं। हथिनी को भी पटाखों वाला अनानास खिलाया गया था। उस अबोध, बेजुबान, संयमी और मानव-प्रिय जानवर को क्या ज्ञान, एहसास था कि वह फल उसके मुंह के भीतर विस्फोट करेगा। नतीजतन उसका जबड़ा, जुबान से लेकर फेफड़े तक क्षतिग्रस्त हो जाएंगे। यकीनन यह जानलेवा हरकत इनसानी नहीं हो सकती। हत्यारे इनसान का मुखौटा पहने कोई हिंसक जानवर ही हो सकते हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं जानवर-प्रेमी शख्सियत मेनका गांधी के मुताबिक, केरल में सालाना करीब 600 हाथियों की मौत होती है। सभी अप्राकृतिक मौतें और हत्याएं…! एक वन्य जीवन विशेषज्ञ ने खुलासा किया है कि 93 फीसदी साक्षर, सुसंस्कृत, सभ्य और आदर्श राज्य केरल में विस्फोटक फलों से जानवरों, खासकर हाथियों, को मारने की एक खास मानवीय प्रवृत्ति है। अजीब दानवी प्रवृत्ति है यह! कमोबेश ऐसी प्रवृत्ति वाली हमारी भारतीय संस्कृति नहीं हो सकती। हाथी को तो भगवान गणपति गणेश का प्रतीक माना गया है। क्या ‘भगवान के देश’ में ही भगवान की हत्या की जा सकती है? वह गर्भवती हथिनी भूखी थी, लिहाजा ग्रामीण इलाके की तरफ गई थी। विस्फोटक फल खिलाने के बाद जरा उसकी अनंत, असहनीय पीड़ा और दर्द की कल्पना करें, उसे महसूस करें। काश! हथिनी की खामोश अभिव्यक्तियां और दर्द की कराहें भीतरी आत्मा से सुनी-समझी होतीं, तो मानवता दहल उठती, दानवता पिघल उठती। यह हथिनी और उसके अजन्मे शिशु की मौत नहीं, बल्कि इनसानियत के समापन की शुरुआत है। बेशक जानवर मारे जाते रहे हैं, उनका शिकार किया जाता है, उनके जरिए व्यापार किए जाते हैं, जानवर दुर्घटनाओं में भी मारे जाते रहे हैं, लेकिन हथिनी गर्भवती थी। कानूनन न तो किसी जानवर को मारा जा सकता है और न ही उनके अभयारण्य पर कब्जे किए जा सकते हैं, लेकिन दोनों ही अपराध किए जा रहे हैं, जबकि वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम में सात साल की कड़ी सजा का प्रावधान है। दुर्भाग्य और विडंबना है कि अपराधी अक्सर 25,000 रुपए का जुर्माना देकर छूट जाता है। वन्य जीवों के अभयारण्य के लिए भी पांच फीसदी से कम जमीन बची है। निगाहें उस पर भी टिकी हैं। हाथी को तो मनुष्य का साथी जीव माना जाता रहा है। उस हथिनी ने भी दर्द सहे, तीन दिन पानी में बसी रही शायद जुबान को ठंडक देने के लिए, अंततः तीन दिन के बाद ‘निःशब्द’ हो गई। बेशक केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडे़कर ने जांच का भरोसा दिया है। उधर केरल के मुख्यमंत्री पी.विजयन ने भी पुलिस और वन विभाग की दो जांच टीमें बनाई हैं। लेकिन एक तरफ इंसाफ का भरोसा दिलाना और दूसरी तरफ ‘नफरत का अभियान’ करार देना वाकई परस्पर विरोधाभास है। बहरहाल हत्यारों को तो दंडित कीजिए।