अनिल अनूप
फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत पंचतत्त्व में विलीन हो गए। अब यह अध्याय बंद होना चाहिए, लेकिन जो चिंतित करने वाला मुद्दा सामने आया है, वह है-भारतीय युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति। देश में इसकी दर बेहद निरंतर होती जा रही है। आत्महत्या 10 बड़ी और घातक बीमारियों की श्रेणी में शामिल हो चुकी है। वैसे भी विश्व भर में सबसे अधिक आत्महत्याएं भारत में ही होती हैं। बेशक दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की संख्या सर्वाधिक है, लेकिन दूसरे स्थान पर औसतन 15-35 साल के आयु-वर्ग के नौजवान हैं, जो अलग-अलग कारणों से खुदकुशी कर रहे हैं। यह वाकई चौंका देने और चेताने वाला तथ्य है। खुदकुशी भी मानसिक स्वास्थ्य का एक पक्ष है और इस पक्ष को हमेशा हाशिए पर रखा गया है। नजरअंदाज किया जाता रहा है अथवा सामाजिक कलंक करार दे दिया गया है। बंगलुरू के मानसिक स्वास्थ्य एवं न्यूरोसाइंसेज संस्थान ने एक सर्वे कराया था, जिसका निष्कर्ष था कि करीब 13.7 फीसदी भारतीय मानसिक रोगों या विकारों से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का आकलन था कि भारत सरकार मानसिक स्वास्थ्य पर मात्र 1.3 फीसदी ही खर्च करती है। हालात ये हैं कि भारत में करीब 15 करोड़ मनोरोगियों को तुरंत इलाज की जरूरत है और करीब तीन करोड़ को उचित देखभाल की दरकार है। देश में 10 फीसदी मानसिक रोगी ऐसे हैं, जिनके करीब 80 फीसदी मरीजों की इलाज तक पहुंच ही संभव नहीं है। यह भयावह स्थिति है, क्योंकि इन्हीं में से कई ऐसे होंगे, जो आत्महत्या तक की सोच सकते हैं। हालांकि 2014 के बाद से कुछ प्रयास किए गए हैं कि मेंटल हेल्थ को भी एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र तय किया जाए। नया कानून भी पारित हो चुका है, जिसमें पहली बार आत्महत्या को ‘अपराध’ नहीं माना गया है। कुछ राज्य ऐसे हैं, जहां मानसिक स्वास्थ्य प्राथमिकता पर लगता है, क्योंकि उन्होंने एक निश्चित हेल्पलाइन नंबर घोषित कर रखा है, लेकिन बजट को देखकर स्पष्ट हो जाता है कि वे कितने गंभीर होंगे? आज भी देश के स्तर पर स्थिति बड़ी उपेक्षित है, क्योंकि मानसिक बीमारी को लेकर एक लाख की आबादी पर औसतन दो बिस्तर उपलब्ध हैं। जिस देश में सालाना एक-डेढ़ लाख लोग आत्महत्या करते हों, उसकी उपेक्षा कई सवाल पैदा करती है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की घोषणा है कि स्वास्थ्य शारीरिक, मानसिक, सामाजिक कल्याण की समग्र स्थिति है। जाति, धर्म, राजनीतिक विचार, आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के भेदभाव के बिना स्वास्थ्य का अधिकतम आनंद लेना हर मनुष्य का बुनियादी अधिकार है। लेकिन सवाल यह भी है कि अधिकतर लोग मानसिक रोग या विकार को बताने और डाक्टर के पास जाकर खुलासा करने में हिचकते क्यों हैं? जो डाक्टर तक मामले पहुंच पाते हैं, उनमें ज्यादातर डर, दहशत और ग्रंथियों के होते हैं। खुद मरीजों और उनके परिजनों को एहसास तक नहीं होता कि यह मानसिक स्वास्थ्य के बिगड़ने की शुरुआत हो सकती है। मानसिक विकार के कई कारण हैं। जिन परिस्थितियों में सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या का निर्णय लिया होगा, उसकी व्याख्या वह डाक्टर कुछ हद तक कर सकते हैं, जो सुशांत का इलाज कर रहे थे। मनोचिकित्सक मानते हैं कि कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएं ऐसी होती हैं, जो व्यक्ति का मन-मस्तिष्क बांट सकती हैं। नतीजतन आत्महत्या का विचार खंडित हो सकता है। यह डाक्टर ही मरीज को देखकर सुझा सकते हैं। सवाल यह है कि देश में नौजवानों की खुदकुशी एक गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है, लेकिन उस अनुपात में सरकार के स्तर पर प्रयास नगण्य हैं। आखिर ऐसा क्यों…और कब तक हम झेलते रहेंगे? एक उदाहरण है कि केरल में राज्य सरकार के स्तर पर अभी तक चार लाख से अधिक मनोवैज्ञानिक सलाहें दी जा चुकी हैं। सरोकार मानसिक सेहत का है, तो जाहिर है कि कुछ आत्महत्याएं टाली जा सकी होंगी! ऐसा प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जा सकता है। चूंकि स्वास्थ्य राज्य सरकार का विषय है, लिहाजा अलग-अलग सरकारें मानसिक स्वास्थ्य पर बिल पेश कर अपने कानून बना सकती हैं। मकसद तो खुदकुशी के आंकड़े और प्रवृत्ति को रोकना और कम करने का है। बेशक कोरोना वायरस और लॉकडाउन के मौजूदा दौर में भी मानसिक अवसाद बढ़ा होगा। उसका विश्लेषण किया जाना चाहिए और निष्कर्षों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। आखिर मानव जिंदगी का सरोकार है।