अनिल अनूप
सवाल करना विपक्ष का संवैधानिक अधिकार है। लोकतंत्र हमें भी यह अधिकार देता है। कमोबेश सैन्य और सरहदी तनाव के दौर में सरकार को स्पष्ट तौर पर सवालों के जवाब देने चाहिए। सर्वदलीय बैठक के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने देश को बताया-‘‘न कोई हमारी सीमा में घुस आया है। न ही कोई घुसा हुआ है। न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है। लद्दाख में हमारे 20 जांबाज शहीद हुए, लेकिन जिन्होंने भारत माता की तरफ आंख उठाकर देखा था, उन्हें वे सबक सिखाकर गए।’’ बुनियादी तौर पर देश ने प्रधानमंत्री के उस ब्यौरे को स्वीकार किया है। शरद पवार, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे और नवीन पटनायक सरीखे विपक्षी नेताओं ने अपने सवालों को हाशिए पर रखा और मौजूदा दौर में सरकार के समर्थन की घोषणा की, लेकिन विपक्ष में एक तबका ऐसा भी है, जिसने कहा कि प्रधानमंत्री झूठ बोल रहे हैं। प्रधानमंत्री ने चीन के सामने सरेंडर कर दिया है। हालांकि देश के चुने हुए सर्वोच्च कार्यकारी नेता के लिए ऐसी टिप्पणियां न तो उचित हैं और न ही देशहित में हैं। चीन ने इन टिप्पणियों का इस्तेमाल कर दुष्प्रचार भी फैलाया है। दरअसल कुछ सवाल वाजिब हैं, लेकिन अभी तक अनुत्तरित रहे हैं। तो देश क्या समझे कि चीन सीमा पर हालात क्या हैं और ये टकराव क्यों हिंसक हुए हैं? सवाल यह है कि यदि किसी ने सैन्य अतिक्रमण ही नहीं किया, तो हिंसक टकराव कैसे और क्यों हुआ? भारत के 20 जांबाज सैनिक किसकी सरजमीं पर ‘शहीद’ हुए? यदि सब कुछ सामान्य है, तो फिर सर्वदलीय बैठक क्यों बुलाई गई? एक सवाल हमें सबसे महत्त्वपूर्ण लगता है कि आखिर गलवान घाटी किसकी है-भारत या चीन की? पूर्व सेनाधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल रहे संजय कुलकर्णी ने एक बहस के दौरान तपाक से जवाब दिया था कि गलवान घाटी भारत का हिस्सा है! हमारे विदेश मंत्रालय ने भी बयान जारी किया है कि गलवान पर स्थिति ऐतिहासिक रूप से स्पष्ट है। अब चीनी पक्ष वहां वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर अपना दावा कर रहा है, जो हमें कतई मंजूर नहीं है। सवाल है कि ‘ऐतिहासिक रूप’ क्या है? कमोबेश देश को तो खुलासा करें। ‘हमें क्या मंजूर नहीं है’, यह भी साफ शब्दों में कहा जाना चाहिए था। बहरहाल इस संदर्भ में प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी स्पष्टीकरण जारी किए हैं, लेकिन प्रधानमंत्री ही देश के संबोधन में साफ कह सकते थे। हम कश्मीर और पाक अधिकृत कश्मीर पर अपना दावा ठोंक बजाकर कहते रहे हैं। तो फिर एक सैन्य अधिकारी की तरह किसी ने भी, प्रधानमंत्री समेत, यह दावा क्यों नहीं किया कि गलवान घाटी भारतीय हिस्सा है? दरअसल गलवान कोई छोटा-सा, सीमित इलाका नहीं है। हालिया हिंसक और हत्यारा टकराव लगभग 15-16,000 वर्ग फुट की ऊंचाई पर हुआ था। जरा कल्पना करें कि यदि सैनिक गोलीबारी पर उतारू हो जाते, तो स्थिति क्या होती? गलवान घाटी में सिर्फ सैनिक और सैन्य साजो-सामान ही दिखता है, वहां कोई आवासीय बस्ती या गांव आदि नहीं है। वह अगम्य-सा इलाका है। गलवान घाटी से कुछ दूर पर ही अक्साई चिन स्थित है, जो फिलहाल चीन के अवैध कब्जे में है। अलबत्ता वह भी भारतीय हिस्सा है। चीन की आशंका हो सकती है कि यदि गलवान में भारतीय सेनाएं पूरी तरह सक्रिय हो गईं, तो आने वाले समय में अक्साई चिन के लिए भी टकराव हो सकते हैं। दरअसल प्रधानमंत्री ने गलवान घाटी को पूरी तरह अनुत्तरित रखा, क्योंकि उसके एक हिस्से पर चीनी सेना, बंकर, बुनियादी ढांचे आदि हैं, जो 1962 के बाद विस्तार पाते रहे हैं। गलवान घाटी में पेट्रोलिंग प्वाइंट-14, 15, 17 तक हमारे जवान गश्त करते रहे हैं। जाहिर है कि वह क्षेत्र एलएसी पर भारत का ही है। प्रधानमंत्री से किसी ने भी सैन्य पोस्ट के बारे में सवाल किया ही नहीं था। फिर भी उन्होंने साफ किया कि वह किसी के भी कब्जे में नहीं है। बेशक देश प्रधानमंत्री के बयान की पड़ताल जरूर करेगा, लेकिन राष्ट्रीय और सैन्य संकट के दौरान की भाषा कुछ और ही होती है। कांग्रेस और वामपंथी दलों की राजनीति प्रधानमंत्री की सियासत से भिन्न है, लेकिन वह देश और उसकी सीमाई अखंडता, एकता और संप्रभुता से बड़ी नहीं हो सकती। फिर भी प्रधानमंत्री कश्मीर की तर्ज पर गलवान घाटी को लेकर देश को संबोधित करें, तो कई भ्रांतियां मिट सकती हैं। इन भ्रांतियों को दूर करना एकदम जरूरी है।