अनिल अनूप
किसी भी रोग की दवा के उत्पादन और बाजार की प्रक्रिया बेहद लंबी, पेंचदार, शोधात्मक, परीक्षणपरक और सरकारी एजेंसी द्वारा प्रमाणित की जाती है। दवा से जुड़ा कोई भी चेहरा न तो प्रमाणित कर सकता है और न ही रोग के उन्मूलन का दावा कर सकता है। आखिर मानवीय जिंदगी का सवाल है। कोई भी कारोबार या बाजार इनसानी जिंदगी से खिलवाड़ नहीं कर सकता। अमरीका, ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों में परीक्षण की इतनी लंबी और सूक्ष्म प्रक्रिया है कि अंतिम चरण तक कुछ ही शोधात्मक प्रयास पहुंच पाते हैं। शेष नाकाम साबित हो जाते हैं अथवा उनके ट्रायल ही खरे नहीं उतरते। उन देशों में दवा या वैक्सीन को लेकर जरा-सी भी ढील, रियायत नहीं दी जाती। हालांकि आपातकाल संबंधी प्रावधान भी हैं। कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी की फिलहाल न तो कोई दवा और न ही कोई टीका है। अलबत्ता दुनिया भर में 120 से अधिक वैक्सीन पर काम जारी है। यह बेहद अहम है कि 10 वैक्सीन का इनसानों पर परीक्षण भी चल रहा है। यदि जनवरी, 2021 तक कोरोना का कोई वैक्सीन बाजार में आता है, तो वह विज्ञान की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। शायद शोधार्थी या किसी दल को नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया जाए! चीन नेशनल बायोटेक ग्रुप की तरफ से तैयार वैक्सीन को भी आखिरी ट्रायल की मंजूरी मिल गई है। कंपनी यह परीक्षण संयुक्त अरब अमीरात में करेगी। भारत में भी करीब 30 अनुसंधान कोरोना की दवा या टीके से जुड़े हैं। ऐसे नाजुक माहौल और महामारी के परिप्रेक्ष्य में बाबा रामदेव और उनके कुछ सहयोगी ‘कोरोनिल’ नाम से कोरोना संबंधी परहेज और उसके इलाज का दावा करने वाली औषधि को लॉन्च करते हैं, तो आश्चर्य स्वाभाविक है। कंपनी ने न तो केंद्रीय आयुष मंत्रालय और न ही कोरोना पर भारत सरकार की टास्क फोर्स से स्वीकृति ली है। सवाल यह भी है कि क्या एक निजी अस्पताल और कंपनी, संबद्ध एजेंसी की अनुमति लिए बिना ही, इनसानी ट्रायल कर सकते हैं? क्या यह औषधि से जुड़े कानूनों का उल्लंघन नहीं है? इस आयुर्वेदिक दवा के शोधात्मक चरण क्या रहे, इसमें कौन से तत्त्व, कौन-सी जड़ी-बूटियां, कौन से रसायन आदि के, कितने अनुपात में, मिश्रण किए गए हैं? इस आशय का शोध-पत्र किस अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में छपवाया गया, ताकि वैश्विक स्तर पर उसकी समीक्षा की जा सके? बेशक विश्व स्वास्थ्य संगठन आयुर्वेद सरीखी देसी औषधियों को भी मान्यता देता है। हमारे देश में एलोपैथी के साथ-साथ आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सा पद्धतियों को भी पढ़ाया जाता है। विश्वविद्यालय इनकी डिग्रियां भी देती हैं। अनुसंधान भी किए जाते रहे हैं। आयुष मंत्रालय भी दवा बनाने की बात करता रहा है। अभी जो दवा बाजार में लाने का दावा बाबा रामदेव ने किया है, उसके ट्रायल पर सहयोगी मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल ने ही सवाल उठाए हैं कि जब मरीजों को ज्यादा बुखार हुआ, तो उन्हें एलोपैथी की दवा दी गई। ट्रायल को लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय, आईसीएमआर, सीएसआईआर और टास्क फोर्स, किसी को भी सूचित नहीं किया गया। क्या भारत में दवा बनाने की प्रक्रिया इतनी लचर भी हो सकती है कि कोई भी महामारी की दवा बनाने और सात दिन में ठीक होने का दावा कर सकता है? बहरहाल आयुष मंत्रालय ने दवा के विज्ञापन और बिक्री पर रोक लगा दी है। सम्यक तौर पर जांच की जाएगी। गिलॉय, अश्वगंधा, तुलसी, काली मिर्च आदि हमारी प्राचीन जड़ी-बूटियां रही हैं, जो प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा सकती हैं। हम इनका प्रायः सेवन करते रहे हैं। पतंजलि और उसके सहयोगियों ने किन आधारों पर दावा किया है कि इन्हें मिलाकर बनाई गई दवा कोरोना वायरस को खत्म कर इनसान को स्वस्थ कर सकती है? इस प्रयास को कानूनी तौर पर भी चुनौती दी गई है। महाराष्ट्र और राजस्थान सरकारों ने भी बिक्री पर रोक लगाई है। सवाल यह भी है कि दुनिया की जो बड़ी-बड़ी कंपनियां अरबों रुपए खर्च करती हैं और अनुसंधान, परीक्षण पर 5-7 साल लगाती हैं, उनके वैक्सीन को आज तक स्वीकृति नहीं मिली, लेकिन ‘दिव्य फार्मेसी’ ने कुछ ही दिनों में करिश्मा कर दिया। नतीजतन संदेह और सवाल जरूरी हैं। फिलहाल गेंद आयुष मंत्रालय के पाले में है।