अनिल अनूप
यह भारतीय रेल का निजीकरण नहीं, बल्कि विस्तार है। बेशक रेलवे में निजी भागीदारी और टे्रन चलाने का प्रस्ताव आया है। फिलहाल देश में 15,500 से ज्यादा रेलगाडि़यां हररोज दौड़ती हैं। उनके साथ-साथ 109 रूटों पर 151 निजी टे्रन भी दौड़ने लगेंगी, तो यह हिस्सेदारी ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ समान होगी। उसे निजीकरण कैसे कहा जा सकता है? स्वामित्व भारतीय रेल, उसके मंत्रालय और बोर्ड का ही रहेगा। निजी रेलगाड़ी को सरकारी ड्राइवर और गार्ड ही संचालित करेंगे। रेलवे की अपनी राष्ट्रीय संपदा सुरक्षित है, बल्कि निजी रेलगाडि़यों का संचालन करने वाली कंपनियां 30,000 करोड़ रुपए का निवेश करेंगी। भारतीय रेलवे की राजधानी, शताब्दी सरीखी एक्सप्रेस, मेल रेलगाडि़यां यथावत दौड़ती रहेंगी। तो एक प्रस्ताव से ही निजीकरण का आरोप लगाना और किसी ‘छिपे एजेंडे’ की तलाश करना व्यर्थ है। हमारा सवाल तो यह है कि व्यवस्था में सुधार ऐसे किए जाएं कि विमान और रेल सेवाएं सरकार ही क्यों चलाए? नीति, प्रशासनिक नियंत्रण और वित्तीय प्रबंधन आदि सरकार का विशेषाधिकार रहें। अलबत्ता ऐसे काम निजी कंपनियों को सौंपने में क्या दिक्कत है? सरकारों ने एलआईसी, कॉनकार, भारत पेट्रोलियम, इंडियन ऑयल, कोयला आदि सार्वजनिक उपक्रमों और क्षेत्रों में पीपीपी के जरिए निजी निवेश और भागीदारी के मद्देनजर अपनी हिस्सेदारी बेचने के निर्णय लिए हैं, तो रेलवे का विस्तार करना संदेहास्पद क्यों लग रहा है? बेशक रेलवे औसत भारतीय की जीवन-रेखा है। यह अपेक्षाकृत सस्ता और विश्वसनीय यातायात का साधन है। करीब 2.5 करोड़ यात्री हररोज रेलवे में ही सफर करते रहे हैं, लिहाजा भारतीय रेलवे का विश्व में चौथा स्थान है। निजी भागीदारी से हमारी रेल का वैश्विक दर्जा बढ़ेगा या घटेगा? फिलहाल 15 लाख से अधिक भारतीयों को रेलवे में रोजगार हासिल है। नए रूटों पर 151 नई रेलगाडि़यों के संचालन से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे और नई नौकरियां भी प्राप्त होंगी। कंपनियों के मालिक और निदेशक तो रोजमर्रा के काम नहीं कर सकते। चूंकि नेटवर्क का विस्तार होगा, तो मानव संसाधन की दरकार भी बढ़ना स्वाभाविक है। फिर रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष के प्रस्ताव पेश करने के बाद ही वामदलों और कांग्रेस ने चिल्ल-पौं मचा रखी है कि देश बिक जाएगा। राष्ट्रीय संपदाओं को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। जीवन-रेखा ही मर जाएगी। ये दलीलें ही खोखली हैं। देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर 1991 में ही शुरू हो गया था। उसमें सुधार हुए हैं, लेकिन उसे बाधित नहीं किया गया। यदि रेलवे का ही संदर्भ लें, तो उसका बहुत कुछ निजी हाथों में है। प्रतीक्षालय और भोजनालय तक निजी हैं, लेकिन क्या रेलवे का आज तक पूर्णतः निजीकरण हुआ है क्या? रेलवे बोर्ड और संसदीय समितियां आकलन कर चुकी हैं कि यदि रेलवे का संचालन और रखरखाव ऐसा ही जारी रहा, तो यह एक दिन ‘सफेद हाथी’ बनकर सरकार और देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बन सकता है। ‘एयर इंडिया’ का उदाहरण सामने है, जिसका घाटा ही हजारों करोड़ रुपए है। यदि निजी भागीदारी लागू हो पाती है, तो पटरियों का नया जाल बिछाना आसान होगा, क्योंकि सरकार को अपने खजाने से निवेश नहीं करना पड़ेगा। यह काम भी प्राथमिकता का है, क्योंकि हमारी पटरियां भी पुरानी हो चुकी हैं। नतीजतन रेल दुर्घटनाओं की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। अभी रेल पर यात्रियों का बोझ अपरिमित है। त्योहारों के मौसम में बिहार, उप्र, बंगाल जाने वाली रेलगाडि़यों को देखें, तो वे भेड़-बकरियों की तरह ठुंसी होती हैं। सामान्य तौर पर भी टिकट की मांग और आपूर्ति में ढेरों फासले हैं। टिकट वेटिंग या आरएसी होगा। याद करें, जब 2013 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर प्रचार कर रहे थे, तो उन्होंने मुद्दा उठाया था कि रेल का टिकट सभी को मिलना चाहिए, उसके लिए वेटिंग क्यों रखा जाए? उन्होंने पहाड़ी राज्यों को भी रेल से अच्छी तरह जोड़ने का ऐलान किया था। बहरहाल यह तो संभव नहीं हो सका, लेकिन रेलवे टिकट की मांग और आपूर्ति का अंतर अब पाटा जाना चाहिए। निजी भागीदारी से यह समस्या कुछ सुलझ सकती है। अधिक टे्रन चलने से सरकार को अधिक राजस्व भी मिलेगा, नौकरियां निकलेंगी, जबकि वित्तीय प्रबंधन, रेलगाडि़यों का रखरखाव और संचालन और अधिग्रहण आदि की जिम्मेदारियां निजी कंपनियों के ही दायित्व होंगे। तो यह प्रयोग क्यों न किया जाए? अभी तो प्रस्ताव आया है। अप्रैल, 2023 से ही निजी टे्रन शुरू हो सकेगी। अब उन बयानों का कोई महत्त्व नहीं है, जिनमें निजीकरण का विरोध किया गया था। यदि यह निजी भागीदारी शुरू हो पाती है, तो आगे भारतीय रेल के निजीकरण के विचार पर विमर्श हो सकता है। अलबत्ता यह प्रयास तो किया जाना और समर्थन करना चाहिए।