अनिल अनूप
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत 69 साल के बुजुर्ग हैं और उप मुख्यमंत्री पद से हटाए गए सचिन पायलट 42 वर्षीय युवा नेता हैं। कोई जरूरी नहीं है कि सियासत पीढि़यों के टकराव पर ही की जाए। इन दो आयु-वर्गों में सियासत के द्वंद्व भी बहुत कम सामने आए हैं। साठ और सत्तर के दशक में कामराज, निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई बनाम इंदिरा गांधी के आपसी टकराव की बुनियाद भी उम्र नहीं थी। उस कालखंड में कांग्रेस के अधिकतर बुजुर्ग नेताओं ने मुख्यमंत्री पद छोड़ कर पार्टी संगठन में काम करने की इच्छा जताई थी। तब जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष भी थे। उन्होंने बुजुर्ग मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। उसके बावजूद इंदिरा गांधी के कालखंड में कांग्रेस दोफाड़ क्यों हुई और कांग्रेस के साथ ‘इंदिरा’ का नाम क्यों चिपक कर रह गया, इसका लंबा इतिहास है। फिलहाल राजस्थान कांग्रेस और सरकार का संकट और सत्ता के पतन की साजिशें ही चर्चा में हैं। गहलोत सख्त और कड़क किस्म के नेता नहीं आंके जाते, हालांकि उनकी ‘सियासी जादूगरी’ विरोधियों को चित्त करती आई है। इस बार सचिन पायलट को लेकर वह ‘राजनीतिक दुर्वासा’ की हद तक पहुंच गए हैं और समूचे युवा वर्ग की प्रतिभा और योगदान पर सवाल उठा रहे हैं। मुख्यमंत्री गहलोत का मूल्यांकन है कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना, अच्छी बाइट देना और खूबसूरत दिखना ही राजनीति में सब कुछ नहीं है। समर्पण, नीयत और प्रतिबद्धता भी होनी चाहिए। गहलोत का यह विश्लेषण एक औसत बुजुर्ग की कुंठा हो सकता है। वक्त बिल्कुल बदल चुका है। यदि युवा वर्ग अंग्रेजी भाषा का ज्ञान अर्जित करता है और अमरीका, यूरोप में पढ़ने के कारण उसे मातृभाषा की तरह ही बोलता है, तो यह किसी भी तरह की अयोग्यता कैसे मानी जा सकती है। राजनीति में चार दशकों से अधिक के अनुभवी गहलोत फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोल सकते, तो इस अक्षमता या संकीर्णता को युवा नेताओं पर क्यों थोपा जाए? गहलोत को ध्यान रखना चाहिए कि उनका पार्टी नेतृत्व भी फर्राटेदार अंग्रेजीदां है और कथित सुंदर भी दिखाई देता है। पार्टी में जितिन प्रसाद, दीपेंद्र हुड्डा, संजय निरूपम, प्रिया दत्त और कुछ महीने पहले तक सिंधिया समेत नौजवान नेताओं की एक भरी-पूरी जमात है। वे वक्त के साथ-साथ रगड़ाई खा रहे हैं। इस उम्र में गहलोत भी अधकचरे ही थे, लेकिन वह एक ओर मानते हैं कि आने वाला कल नई और युवा पीढ़ी का है, तो दूसरी ओर उपमा में तंज करते हैं कि सोने की छुरी प्लेट में खाने के लिए नहीं होती। बहरहाल यह मुख्यमंत्री का बेहद गंभीर आरोप है कि खुद पायलट ने, भाजपा के साथ मिलकर, राजस्थान की अपनी ही सरकार गिराने की साजिश रची। सौदा 20 करोड़ रुपए में तय हुआ। ‘घोड़ों’ की खरीद-फरोख्त के सबूत भी उनके पास हैं। बुनियादी तौर पर यह भ्रष्टाचार और दलबदल का मामला है। मुख्यमंत्री सबूतों के आधार पर कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं। उस संदर्भ में पूरे युवा वर्ग को ही गरियाने और कोसने का मतलब क्या है? हास्यास्पद तो यह है कि गहलोत ने विधानसभा के स्पीकर को इस्तेमाल कर बागी विधायकों को अयोग्य करार देने के नोटिस भिजवाए हैं, लेकिन पार्टी महासचिव एवं राजस्थान के प्रभारी अविनाश पांडे ने ‘दरवाजे खुले’ की बात कही है। कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला ने भी ‘होनहार, युवा पायलट’ से अपील की है-आइए, लौट आइए, बैठिए और चर्चा कीजिए। इस विरोधाभास की व्याख्या क्या करें? मुख्यमंत्री कोई भी रहे, इस खेल में कौन जीता और कौन हारा, यह बुनियादी मुद्दा नहीं है। दरअसल मुद्दा कोई है ही नहीं। यह पीढि़यों के आपसी अहंकार की राजनीतिक कवायद जारी है। इसे स्वीकृति कौन देगा? स्पष्ट है कि बुजुर्ग और युवा वर्ग की अपनी-अपनी भूमिका है। स्थान रिक्त होगा, तो जाहिर है कि नई पीढ़ी उसे भरेगी। यह स्वाभाविक प्रक्रिया चलती रही है, जैसे प्रकृति चलती रहती है। युवाओं के चक्कर में गहलोत ने मीडिया को भी लपेटा और कोसा। उसे संवैधानिक दायित्वों का आभास दिलाने की कोशिश की। आखिर मीडिया कौन से संवैधानिक पद पर आसीन है गहलोत जी? इस पूरी कवायद और सियासी गालीबाजी से कांग्रेस का भीतरी संकट और भी गहरा सकता है, लिहाजा अब खुद आलाकमान को दखल देना चाहिए।