अनिल अनूप
आज देश की राजधानी दिल्ली के भीतर का यथार्थ आपसे साझा करते हैं। ऐसे कई स्वप्नजीवी हैं, जो दिल्ली को पेरिस और लंदन बनते देखना चाहते हैं। कभी रेलगाड़ी से सफर करें, तो दिल्ली के आसपास का इलाका जरूर देखते रहें। घिन कितनी होगी, हम नहीं कह सकते, लेकिन इतना दावा कर सकते हैं कि पेरिस और लंदन वाली दिल्ली के सपनों पर ढेरों सवाल आप जरूर करेंगे। दिल्ली एक सैलाब है और वह सैलाब किसी भी वस्तु का हो सकता है। दिल्ली के संदर्भ में सैलाब सिर्फ पानी से ही नहीं जुड़ा है। दिल्ली का एक स्पष्ट यथार्थ तो यह है कि वह कुछ घंटों की रुक-रुक बारिश में ही जलमग्न होने लगती है या लंबे-लंबे जाम के कारण ठहर जाती है। राजधानी है, तो देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, संसद और सर्वोच्च न्यायालय आदि यहीं हैं। सतही तौर पर दिल्ली की तुलना पेरिस, लंदन और न्यूयॉर्क से की जा सकती है, लेकिन दिल्ली के भीतर एक ऐसी दुनिया भी है, जो बरसात के मौसम में हर पल मौत की आशंकाओं में जीती है। दिल्ली में असम और बिहार सरीखी बाढ़ आ जाए, तो न जाने कितनी त्रासदियां सामने आएंगी! बेशक यह मॉनसून का मौसम है। रविवार को दिल्ली में औसतन 74 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई, जो सामान्य से भी काफी कम थी। ऐसी बारिश में ही जलभराव इतना हुआ कि कनॉट प्लेस की बगल में स्थित मिंटो रोड के अंडरपास में एक बस फंस गई, ऑटोरिक्शा और टैंपो भी पानी के पार नहीं निकल पाए। उस स्थान से करीब आधा किलोमीटर दूर भाजपा का पंचतारा मुख्यालय है, जहां प्रधानमंत्री और गृहमंत्री आते रहते हैं। इस अतिविशिष्ट स्थान की दुर्दशा कई सालों से लगातार देखते आ रहे हैं। इस बार त्रासद खबर यह मिली कि उस पानी में डूबकर एक टैंपो ड्राइवर की मौत हो गई। कुछ और मौतें अन्य जगहों पर भी हुई हैं। इसके अलावा, राजधानी के प्रमुख आईटीओ चौक से कुछ दूरी पर ही अन्ना नगर में कुछ कच्चे मकान भरभरा कर ढह पड़े और पानी के तेज बहाव में घरों का बहुत कुछ बह कर चला गया। झोंपड़पट्टियों में भी 8-10 ऐसी थीं, जो सैलाब जैसी बरसात नहीं झेल सकीं और जमींदोज हो गईं। उन घरों और झुग्गियों में रहने वाले देखते ही देखते बेघर हो गए। यह देश की आलीशान और अंतरराष्ट्रीय स्तर की राजधानी का आंखों देखा यथार्थ है। एक विरोधाभास गौरतलब है कि जहां मकान पानी का तेज बहाव नहीं झेल सके और ‘मिट्टी-मिट्टी’ हो गए, उनके ही सामने विश्व स्वास्थ्य संगठन में निर्माण जारी था और उसमें बड़ी गहरी खुदाई की जा रही थी। नतीजतन पानी के बहाव में गतिरोध आया और अंततः नाले में जल-प्रवाह ने सैलाब का रूप ग्रहण कर लिया। कुछ और मकानों में दरारें भी आई हैं। उनके ढहने और बहने का पूरा अंदेशा है। बहरहाल हम मानते हैं कि देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद शहर में नालों की सफाई और मरम्मत, बरसात और बाढ़ नियंत्रण के काम नहीं देखते। ये अतिविशिष्ट, संवैधानिक हस्तियां दिल्ली के उस आलीशान इलाके में रहती हैं, जहां बारिश सैलाब नहीं हो सकती, लेकिन छोटी-सी बरसात में आधा दर्जन मौतों और बेघर नागरिकों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन होगा? लापरवाही किसकी तय की जाए? जवाबदेही किसी की तो होगी? अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन संवैधानिक तौर पर आधे-अधूरे हैं। दिल्ली में बरसाती पानी, नालों की सफाई, ड्रेनेज सिस्टम, सीवरेज और बाढ़ नियंत्रण का दायित्व 17 सरकारी एजेंसियों के पास है। वे आपस में टोपियां बदलती रहती हैं। विडंबना यह है कि 1976 के बाद दिल्ली के डे्रनेज सिस्टम की समीक्षा करके कोई रपट ही तैयार नहीं की गई। मास्टर प्लान तो बहुत दूर की कौड़ी है। मुख्यमंत्री रहते हुए शीला दीक्षित ने आईआईटी दिल्ली से आग्रह किया था कि वह कोई नया प्लान बनाकर दें। जितना काम किया गया, उसमें तथ्य सामने आए कि डे्रनेज सिस्टम में बड़े स्तर पर अतिक्रमण हैं। एक रपट 2018 में आई, तब तक सत्ता केजरीवाल के हाथों में आ चुकी थी। बीते साल बारिश बहुत कम हुई, लिहाजा पोल नहीं खुल सकी, लेकिन इस बार एक झटके में ही दिल्ली का यथार्थ बेनकाब हो गया, लिहाजा भाजपा सरकार में बैठी ‘आप’ को, कांग्रेस भाजपा और ‘आप’ को कोस रही हैं तथा ‘आप’ कोरोना वायरस की आड़ में छिपने की कोशिश कर रही है। कष्ट, संकट और त्रासदियां जनता के हिस्से में हैं। क्या पेरिस, लंदन भी ऐसे ही शहर हैं?