अनिल अनूप
बुनियादी विवाद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का है। आंदोलित किसानों की मांग है कि सरकार एमएसपी को किसानों का ‘कानूनी अधिकार’ घोषित करे, ताकि उससे कम कीमत पर फसल की खरीद न हो सके और किसान को कम दाम न मिलें। बेशक हर साल, हर मौसम से पहले केंद्रीय कैबिनेट एमएसपी तय करती है, लेकिन शांता कुमार समिति का निष्कर्ष नहीं भूलना चाहिए कि मात्र 3-4 फीसदी किसानों की फसल ही एमएसपी पर बिक पाती है। शेष 95 फीसदी से अधिक किसान कम दामों पर अपना खाद्यान्न बेचने को बाध्य रहे हैं। यह आढ़तियों, दलालों और अन्य का ‘चक्रव्यूह’ है, जिससे औसत किसान मुक्त नहीं हो पा रहा है। बेशक केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने संसद में एमएसपी की नई कीमतों की घोषणा की है, लेकिन आम किसान के लिए वह बेमानी है, क्योंकि उसकी फसल एमएसपी के मुताबिक नहीं बिकती रही है। एक मोटा उदाहरण है कि यदि गेहूं पंजाब, हरियाणा की मंडियों में 1975 रुपए प्रति क्विंटल के भाव से बिकेगा, तो बिहार की मंडियों में वहां के किसान को 400-500 रुपए कम का भाव मिलेगा। बिहार में एपीएमसी एक्ट 2006 में ही खत्म किया जा चुका है। तब खुले बाजार और निजी निवेश के प्रवाहों की खूब चर्चा की गई थी। पूरा देश जानता है कि बिहार के हालात क्या हैं? भाव की इस असमानता के कारण ही बिहार आज भी पंजाब और हरियाणा की संपन्न स्थितियों से बेहद दूर है। देश के दूरदराज इलाकों से किसान का पंजाब, हरियाणा की मंडियों तक, अपनी फसल को ले जाना, भी व्यावहारिक नहीं है। चूंकि एमएसपी देशभर के लिए न्यूनतम कीमतों की सरकारी घोषणा है, लिहाजा सरकार को पूरी शिद्दत के साथ उन्हें लागू करना चाहिए। यह तभी संभव है, जब एमएसपी को किसान का कानूनी अधिकार बना दिया जाएगा। हालांकि कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ऐसा करने से इंकार कर चुके हैं और दिक्कतों का उल्लेख करते हुए इसे ‘प्रशासनिक व्यवस्था’ करार दे चुके हैं। ऐसी व्यवस्था को कैबिनेट पारित क्यों नहीं कर सकती? बाद में संसद से पास कराया जा सकता है। उसमें उल्लेख होना चाहिए कि रबी और खरीफ की फसलों का एमएसपी उनके मौसम के मुताबिक ही घोषित किया जाता रहेगा। इसमें तकनीकी और संवैधानिक बाधाएं क्या हैं? अर्थशास्त्रियों का एक तबका मानता है कि देश में कृषि मंडियों और एमएसपी को कमोबेश आगामी 20-25 सालों तक खत्म नहीं किया जा सकता। मौजूदा पारित विधेयकों में भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। कृषि अर्थशास्त्रियों के एक और वर्ग का मानना है कि एमएसपी की परंपरा और व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए। कृषि बाजार भी पूरी तरह खुला होना चाहिए। क्या नए विधेयकों की आड़ में वैसा ही निजीकरण छिपा है? जो भी है, कृषि उत्पादों की बिक्री के जरिए कमीशनखोरी का खेल अब समाप्त होना चाहिए। बीते 50 सालों से भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) किसानों से सीधे ही खाद्यान्न की खरीद करता आया है, लेकिन फिर भी बिचौलियों को 2.5 फीसदी और राज्य सरकारों को छह फीसदी कमीशन देनी पड़ती है। सीधी खरीद में दलाली का आधार और औचित्य क्या है? यह कमीशन एमएसपी के अतिरिक्त देनी होती है। मोटा अनुमान है कि बिना कोई ठोस भूमिका निभाए राज्य सरकारें 5000 करोड़ रुपए तक बटोरती रही हैं। क्या यह भी अर्थव्यवस्था का कोई हिस्सा है? यदि बिचौलिए की व्यवस्था ही खत्म हो जाए, तो किसान और उपभोक्ता दोनों को ही फायदा होगा। यह प्रयोग भी करना चाहिए कि किसान और उपभोक्ताओं के लिए कॉरपोरेट्स के तौर पर नए विकल्प कैसे रहते हैं! उद्योगपतियों को गाली देना भी एक राजनीतिक फैशन है, जो बेमानी है। ये तमाम व्यवस्थाएं तभी सार्थक साबित होंगी, जब मौजूदा एपीएमसी में सुधार किए जाएं और एमएसपी को किसान का कानूनी अधिकार बना दिया जाए। नतीजतन एमएसपी से कम दाम में फसलें नहीं बिकेंगी और किसान की आर्थिक स्थिति सुधरेगी। फिलहाल किसानों का आंदोलन उत्तरी राज्यों तक ही सीमित है। देश के दक्षिण, पश्चिम और पूर्व के हिस्सों में किसान आंदोलित नहीं हैं। हालांकि तमिलनाडु में द्रमुक ने आंदोलन का आह्वान किया है। सरकार ने अभी तक 23 फसलों का एमएसपी तय कर घोषित कर रखा है, लेकिन फिलहाल छह फसलों की ही चर्चा होती है। सरकार एमएसपी को कानूनी अधिकार बना देती है, तो किसान की सभी तरह की फसलें उसके दायरे में होंगी और कम दाम देना कानूनन अपराध होगा। सरकार राजनीतिक दृष्टि से न सोचे, बल्कि किसानों से किया गया वायदा याद रखना चाहिए।