अनिल अनूप
बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का सबसे अधिक दुरुपयोग मौजूदा दौर में किया गया है। यह देश के सभी नागरिकों का मौलिक अधिकार है। किसी भी पक्ष को अपनी दलीलें पेश करने का संवैधानिक अधिकार है। केंद्र सरकार इस अदालत के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकती। एक जूनियर अफसर के द्वारा भेजा गया हलफनामा गोलमोल और कपटपूर्ण है, लिहाजा सरकार नया हलफनामा दाखिल करे। भारत सरकार में सचिव स्तर का अधिकारी उस हलफनामे पर हस्ताक्षर करके जारी करे। उसमें यह सब बकवास नहीं होनी चाहिए, जो इस हलफनामे में थी। सरकार अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता पर स्थिति स्पष्ट करे।’ ये शब्द देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एस.के.बोबड़े ने सर्वोच्च अदालत में सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता को संबोधित करते हुए कहे। यकीनन यह अभूतपूर्व और अपवादपूर्ण टिप्पणी है और केंद्र सरकार को सचेत किया गया है। अदालत में तबलीगी जमात से जुड़े मुद्दे पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई हो रही थी, तब एक संवैधानिक अधिकार पर प्रधान न्यायाधीश ने सवाल उठाए। याचिका जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने दायर की थी और वरिष्ठ एडवोकेट दुष्यंत दवे पैरवी कर रहे थे। तबलीगी जमात को लेकर कुछ टीवी चैनलों ने बेहद उत्तेजक और भेदभावपूर्ण खबरें चलाई थीं कि वह सांप्रदायिक नफरत फैलाने और कोरोना संक्रमण बढ़ाने वाली जमात है। कुछेक ने तो उनके संबंध और सूत्र आतंकी संगठनों से जोड़ दिए थे। गिरफ्तारियां भी हुईं और विदेशियों के वीजा खारिज किए गए। ऐसी न्यूज रपटों पर बंबई उच्च न्यायालय ने भी, बीते दिनों, बेहद तल्ख टिप्पणियां की थीं और चैनलों को फटकार के कठघरे में खड़ा कर आत्मनिरीक्षण की नसीहत दी थी। उच्च न्यायालय में तबलीगी जमात के कथित संदेहास्पद चेहरों को ‘बेकसूर’ करार दिया गया। जाहिर है कि उनकी रिहाई हुई, तो चैनलों पर सवाल उठने स्वाभाविक थे। उसी संदर्भ में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर एक बार फिर बहस शुरू हुई है। बीते दिनों सर्वोच्च अदालत की एक अन्य न्यायिक पीठ ने दिल्ली के शाहीन बाग के जरिए महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया था कि सार्वजनिक जगह या आवाजाही की सड़क पर अनिश्चितकाल के लिए धरना नहीं दिया जा सकता, लिहाजा वहां कब्जा भी नहीं किया जा सकता। एक तय स्थान पर धरना-प्रदर्शन और आंदोलनों का आयोजन किया जाना चाहिए। कोई भी नागरिक या संगठन आंदोलन के लिए लोगों को जमा कर सकता है, लेकिन प्रदर्शनकारियों के पास कोई हथियार, बंदूक आदि नहीं होना चाहिए। शाहीन बाग वाले फैसले की बुनियाद में भी बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक, संवैधानिक अधिकार निहित था। कइयों ने सवाल उठाए कि गांधी के देश में ही क्या आंदोलन और असहमति के संवैधानिक अधिकारों को छीनने की कवायद शुरू हो गई है? दरअसल हम ऐसे सवालों से सहमत नहीं हैं, क्योंकि मौलिक अधिकार उस पक्ष का भी है, जो परेशान, उत्पीडि़त और रोजमर्रा की तकलीफें झेल रहा है। बेशक संविधान ने हमें बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया है। अनुच्छेद 19 में सभी प्रावधान दिए गए हैं, लेकिन उसी के उपबंध में यह भी स्पष्ट व्याख्या है कि यह अधिकार ‘निरंकुश’ नहीं है। यह संवैधानिक अधिकार सिर्फ आपका ही नहीं है, बल्कि सभी नागरिकों के संदर्भ में एक सीमित अधिकार है। इस अधिकार की आड़ में मीडिया या कोई अन्य पक्ष, दूसरे पक्ष को, आरोपित नहीं कर सकता। अपशब्दों का इस्तेमाल कर किसी को बदनाम नहीं कर सकता। इस मौलिक अधिकार के विशेष अर्थ हैं, जो हमारे लोकतंत्र और स्वतंत्र मीडिया की बुनियाद हैं। उनका अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। बेशक तबलीगी जमात के मुद्दे पर टीवी चैनलों ने भड़काऊ, अपुष्ट और तथ्यहीन खबरें बार-बार चलाईं। अदालत में वे बेबुनियाद साबित हुईं। तो अब टीवी पत्रकारिता के लिए आचार-संहिता क्या होनी चाहिए? क्या मीडिया पर कोई सेंसरशिप चस्पां की जा सकती है? अथवा उसकी खबरों और रपटों पर निगाह रखने को कोई आयोग गठित किया जा सकता है? ये मुद्दे भी सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन हैं। यदि सरकार हस्तक्षेप कर कोई व्यवस्था करती है, तो फिर इस मौलिक अधिकार को लेकर ही चिल्ला-चोट मचेगी। यह मुद्दा हिंदू-मुस्लिम का भी नहीं है। किसी भी सूरत में सांप्रदायिक विभाजन के हालात नहीं पैदा होने चाहिए। अराजकता में संविधान भी बेमानी हो जाता है। अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी, बेशक प्रिंट मीडिया अथवा टीवी चैनल, ‘लठैत’ की भूमिका में नहीं आ सकते। वे बुनियादी और असली सूचनाओं के स्रोत हैं, लिहाजा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी हासिल है।