अनिल अनूप
करीब 14 महीने की नजरबंदी के बाद महबूबा मुफ्ती को रिहा किया गया है। बाहर आते ही उन्होंने अपने अलगाववादी एजेंडे को दोहराना शुरू कर दिया है। याद रहे कि भाजपा ने उन्हीं के गठबंधन में जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाई थी और महबूबा को मुख्यमंत्री बनाया था। अचानक वह ‘जेहादी’ कैसे हो सकती हैं? अनुच्छेद 370 और कश्मीर की स्थानीय पार्टियों की लामबंदी के बाद कश्मीर का राजनीतिक-सामाजिक माहौल तपने लगा है। हालांकि इसका राष्ट्रीय प्रभाव नहीं पड़ेगा और न ही राजनीतिक समीकरण बदलेंगे। यदि कश्मीर फिर अराजक होता है, तो बेशक यह एक राष्ट्रीय सरोकार है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी समेत कश्मीर की प्रमुख छह सियासी पार्टियों का राजनीतिक समर्थन फिलहाल किसी भी राष्ट्रीय दल ने नहीं किया है, लिहाजा किसी ‘महागठबंधन’ के आसार बेहद धुंधले हैं। अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के खिलाफ प्रतिक्रियाएं व्यापक हो सकती थीं और जनाक्रोश भी भड़क सकता था, लिहाजा जन सुरक्षा कानून और अन्य कानूनी धाराओं के तहत संभावित विरोधियों को हिरासत में लिया गया। कुछ बुजुर्ग और बड़े नेताओं को गेस्ट हाउस या उन्हीं के घरों में नजरबंद किया गया। एक रपट है कि करीब 4000 नेताओं और व्यक्तियों को हिरासत में लिया गया। एक अन्य मीडिया रपट के मुताबिक 5161 लोगों को हिरासत में रखा गया। कुछ ने यह आंकड़ा 600 और 200 भी बताया है। सैकड़ों नौजवान आगरा और मथुरा में लगभग कैद हैं। उनके पास संसाधन नहीं हैं, लिहाजा उनकी आवाज अदालत तक भी नहीं पहुंच पाई है। इस तथ्य की महबूबा की बेटी इल्तिजा ने भी पुष्टि की है। बहरहाल जिन्हें मुक्त कर दिया गया है, अब भी अनुच्छेद 370 को वापस पाने को लेकर उनका रोष कम नहीं हुआ है। रिहाई के कुछ घंटों बाद ही महबूबा ने पांच अगस्त, 2019 को ‘काला दिन’ करार दिया, क्योंकि उस दिन एक ‘काला फैसला’ भारत की संसद ने लिया था। नतीजतन 370 और 35-ए की संवैधानिक व्यवस्था खत्म हो गई थी। महबूबा ने उस फैसले को गैर-संवैधानिक, गैर-लोकतांत्रिक और गैर-कानूनी माना है और अब उसे दोबारा हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ने का ऐलान किया है। कुछ कश्मीरी इसे सियासी आह्वान मान रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के एक और पूर्व मुख्यमंत्री डा. फारूक अब्दुल्ला ने अपने आवास पर कश्मीरी दलों के नेताओं को आमंत्रित किया है। जाहिर है कि अनुच्छेद 370 पर वे कोई प्रस्ताव पारित कर सकते हैं। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। संविधान पीठ इसकी सुनवाई करेगी। वह भी तसल्ली कश्मीरी दलों को नहीं है। सवाल है कि क्या कश्मीर की सियासत अब नई करवट लेगी? क्या कश्मीर के तमाम सियासी दल, अपने विरोधाभासों को झटक कर, एक ही मंच पर आएंगे और आगे की लड़ाई को लामबंद हो सकेंगे? सबसे अहं सवाल है कि क्या अनुच्छेद 370 और 35-ए की संवैधानिक बहाली की कोई संभावनाएं हैं? क्या संसद अपने ही अहं फैसले में अब संशोधन करने को सहमत होगी? बहरहाल हमें तो 370 की बहाली के आसार नगण्य लगते हैं, लेकिन केंद्र सरकार के सामने कई खतरे और चुनौतियां भी हैं। जिस लद्दाख को जम्मू-कश्मीर के चंगुल से आजाद कर केंद्रशासित क्षेत्र बनाया गया था, वहीं से मांग उठ रही है कि उन्हें 370 सरीखा ‘विशेष दर्जा’ दिया जाए। यही कश्मीरी सियासत की बुनियादी सोच है कि वे शेष भारत से अलग और विशेष दिखना चाहते हैं। ऐसी रियायत क्यों दी जाए? गंभीर चुनौती आतंकवाद और अलगाववाद की है। आतंकवाद अब भी कश्मीर में जिंदा है। अलगाववाद की हरकतें और मंसूबे कुचल दिए गए थे। महबूबा, फारूक, उमर आदि के एक साथ सक्रिय होने से अलगाववाद फिर ताकतवर हो सकता है। यदि ऐसा होता है, तो बंदूकधारी और पत्थरबाज नौजवानों की जमात फिर सामने आएगी। नतीजतन हिंसा फैलेगी और कश्मीर का तनाव बढ़ेगा। कश्मीर में कुछ अराजक होगा, तो पाकिस्तान नए जोश के साथ बयानबाजी शुरू करेगा और संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक मंच पर भारत-विरोधी दुष्प्रचार की शुरुआत करने लगेगा। आतंकियों के खिलाफ ‘ऑपरेशन ऑलआउट’ जारी है और इस साल अभी तक 190 से ज्यादा आतंकियों को ढेर किया जा चुका है। सीमापार से आतंकियों की घुसपैठ का सिलसिला भी जारी है। साफ है कि अनुच्छेद 370 पर कश्मीर में नई सियासत शुरू होती है, तो घाटी का अमन-चैन छिन सकता है। रोजगार के जो दरवाजे खुल गए थे और बाजार भी गुलजार होने लगे थे, उनकी जगह कर्फ्यू के सन्नाटे फिर बिछ सकते हैं। आखिरी फैसला वहां के अवाम को लेना है कि अपने आजमाए नेताओं की पुरानी सियासत ही चाहिए अथवा खुशियों-बहारों की ‘जन्नतें’ चाहिए।