अनिल अनूप
यह सिर्फ पंजाब का ही नहीं, राष्ट्र के गौरव का अपमान है। राष्ट्रीय शौर्य और सुरक्षा का कत्ल है। एक क्रांतिवीर की हत्या नहीं, आतंकवाद के खिलाफ एक जुनूनी लड़ाके का पार्थिव अंत किया गया है। एक साजिश कामयाब हुई है, लेकिन हमारी सरकार और व्यवस्था ने आंखें मूंद रखी हैं, यथार्थ से कन्नी काट ली है। आंतरिक सुरक्षा उनका सरोकार नहीं है। बाहरी सीमाओं से खाड़कू पंजाब में फंडिंग कर रहे हैं, अपने गिरोह तैयार कर रहे हैं, पाकिस्तान ड्रोन से हथियार सप्लाई कर रहा है, हमारे भीतर ही खालिस्तान के नाम पर ‘जयचंद’ मौजूद हैं, लेकिन एक ‘शौर्य चक्र’ विजेता कॉमरेड की हत्या के जरिए खालिस्तान की वापसी के प्रयास किए जा रहे हैं। इसके मद्देनजर कमोबेश पंजाब सरकार तो चिंतित नहीं है। ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित बलविंदर सिंह संधू की हत्या कोई स्थानीय कानून-व्यवस्था का नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा का सरोकार है, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। खालिस्तान के कथित खाड़कुओं के ग्रेनेड, रॉकेट लॉन्चर और बम-बारूद वाले हमलों से बलविंदर और उनकी पत्नी ने लोहा लिया था। तब उम्र का 25वां दौर होगा। दोनों लगभग नवविवाहित थे। दूसरे लोगों की तरह वे भी अपने घर के कपाट बंद कर सकते थे, अपनी दुनिया में ही मस्त रह सकते थे, लेकिन वे योद्धा थे। किसी खास मिट्टी से बने थे। देश के प्रति जज़्बा था और खून बार-बार उबाले मारता था। ‘जयचंदों’ की साजिशों के इतिहास उन्हें याद थे, लिहाजा उन दोनों और भाई-भाभी ने जान की परवाह नहीं की और आतंकियों को मार-मार कर भगाया। नतीजतन एक ही परिवार के चार सदस्यों को राष्ट्रपति ने 1993 में ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित किया। वे बेमिसाल क्षण थे…! क्या यह परिवार राष्ट्रीय धरोहर के समान नहीं था? बीते 30-35 सालों के दौरान उस क्रांतिवीर पर करीब 40 हमले किए गए। उनमें से 20 तो उन खाड़कुओं की साजिश बताए जाते रहे हैं, जो पंजाब को खालिस्तान में तबदील करने के मंसूबे पाले हुए हैं और उसी के मुताबिक आतंकी हमले करते या कराते रहे हैं। इन परिस्थितियों के बावजूद बलविंदर और उनके परिवार की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया जाता रहा है। बलविंदर ने आला अफसरों से कई बार मुलाकात कर सुरक्षा के संभावित खतरों और आतंकियों की साजिशों के खुलासे किए थे। इसके बावजूद कोरोना वायरस के मद्देनजर लॉकडाउन की क्या शुरुआत हुई कि पंजाब सरकार ने बची-खुची सुरक्षा भी वापस ले ली। जिस समीक्षा-बैठक में, जिन अफसरों ने, यह निर्णय लिया था, उन पर देश को संदेह होता है। क्या किसी मिलीभगत के तहत ऐसा फैसला लिया गया? लिहाजा देश के प्रधानमंत्री से हमारा आग्रह है कि इस मामले की जांच एनआईए से कराई जाए और क्रांतिवीर के परिजनों को केंद्रीय अर्द्धसैन्य बल की सुरक्षा प्रदान की जाए। हमें पंजाब के ठुल्लों और ‘दागदार’ अफसरों पर विश्वास नहीं है। बेशक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया गया है, लेकिन एक डीएसपी का ओहदा कितना ताकतवर होता है, जो उसकी अध्यक्षता कर सके। बलविंदर खालिस्तान के उस खूनी दौर में हुए, जब बसों और रेलगाडि़यों से लोगों को उतार कर मौत के घाट उतार दिया जाता था। ट्रांजिस्टर में बम फिट किए जाते थे। तब तरनतारन की गलियों में हमने युवा खाड़कुओं को भागते और हिंसा करते हुए देखा था। बलविंदर भी तरनतारन के थे। उस खूनी दौर से मुक्ति का श्रेय तत्कालीन डीजीपी केपीएस गिल को जाता है। उन्हीं की रणनीति के आधार पर आतंकियों को मूली-गाजर की तरह काटा गया। उस दौर में सुमेध सिंह सैनी सरीखे नौजवान पुलिस अधिकारी भी गिल के साथ थे। सैनी भी पंजाब सरकार में डीजीपी बने, लेकिन उनके खिलाफ 1991 का एक केस खोला गया, लिहाजा सुमेध को सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ी और उन्हें राहत मिली, अलबत्ता वह भी जेल की सलाखों के पीछे हो सकते थे। यह पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार की नैतिकता और तटस्थता का एक नमूना है। वह देशभक्तों, क्रातिवीरों और खाड़कुओं में फर्क करना नहीं जानती। नतीजा आतंकियों द्वारा एक ‘शौर्य चक्र’ विजेता की हत्या का सामने है। क्या यह कम है? क्या पंजाब में खालिस्तान के दौर की वापसी हो सकती है? कमोबेश केंद्र सरकार को इस हत्याकांड को गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि वह सम्मान भी ‘राष्ट्रीय’ था।