अनिल अनूप
यह सामान्य समझ का विषय है कि जब दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घातक प्रदूषण की चपेट में है और हम वैश्विक महामारी से जूझ रहे हैं तो पटाखे चलाने से स्थिति विकट ही होगी। इसी संकट को भांपते हुए दिल्ली, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम, कर्नाटक आदि राज्यों ने एनजीटी के फैसले से पहले ही पटाखों पर रोक लगा दी थी। ऐसे में जब बीते सोमवार राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने दिल्ली-एनसीआर में 30 नवंबर तक पटाखे जलाने पर प्रतिबंध लगाया तो इन राज्यों की मंशा को ही विस्तार मिला। इसके साथ ही उन शहरों में भी पटाखे चलाने पर रोक रहेगी जहां बीते नवंबर वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा था। साथ ही जहां प्रदूषण की स्थिति चिंताजनक नहीं है वहां दिवाली के दिन दो घंटे तक केवल ग्रीन पटाखे जलाने की अनुमति होगी। यहां ग्रीन पटाखों को परिभाषित करने और उनकी उपलब्धता की चुनौती भी होगी। निस्संदेह, एनजीटी ने सकारात्मक पहल की है लेकिन यदि समय से निर्णय लिया गया होता तो पटाखा विक्रेताओं को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि वे पहले ही पटाखे खरीद चुके हैं, जिससे उनका भारी नुकसान होगा। बहुत संभव है कि निगरानी एजेंसियों की नजर बचाकर वे खरीदे पटाखे निकालने का प्रयास करें। देखा भी गया है कि पटाखों पर प्रतिबंध लगा देने के बावजूद रात्रि में धमाकों की आवाजें आती रहती हैं। यहां देश के नीति-नियंताओं और प्रदूषण पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं की कारगुजारियों पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। जाहिर है कि दिल्ली समेत उत्तर भारत में फिलहाल जो प्रदूषण है उसमें पटाखों का कोई योगदान नहीं है। यदि अक्तूबर-नवंबर में मौसम में बदलाव तथा पराली जलने से होने वाले प्रदूषण को लेकर कारगर नीतियां बनती और वर्षपर्यंत युद्धस्तर पर काम होता तो शायद यह स्थिति नहीं आती। ऐसे में प्रदूषण का ठीकरा न तो पराली जलाने वालों और न ही पटाखे फोड़ने वालों के सिर फोड़ा जा सकता। स्वाभाविक है कि कुछ लोग इन प्रतिबंधों को धर्म विशेष के त्योहारों के उल्लास को प्रगतिशील दलीलों से बाधित करने के आरोप लगा रहे हैं। कह रहे हैं कि त्योहारों का मजा किरकिरा हो गया। लेकिन यहां प्रदूषण की घातकता और कोरोना संकट को ध्यान में रखें। भारतीय धर्म-दर्शन आस्था के साथ प्रकृति के सहचर से भी जुड़ा है। यह दीपोत्सव का पर्व है ध्रूमोत्सव का नहीं। खुशी मनाना अपनी जगह है, इसका मकसद किसी को रोग बांटना कदापि नहीं है। ये रोक वक्त की नजाकत है, न कि किसी की खुशी को बाधित करने का प्रयास। हमें उदार रवैया अपनाना चाहिए। सही मायनों में दिवाली उजली रात है, जिसे धुएं से स्याह करना अनुचित ही है। अनुभव बताता है कि घातक रसायनों वाले पटाखों के चलने से वातावरण में घातक प्रदूषण कई दिनों तक बना रहता है। ऐसे में हम समाज के प्रति नागरिक दायित्वों का निर्वहन नहीं करते। याद रहे कि ठंड के मौसम में वातावरण के घनीभूत होने और हवा के दबाव के चलते नीचे रह गये धूल व धुएं के कणों से प्रदूषण बढ़ जाता है। दृश्यता में भी कमी देखी जाती है। ऐसे में नियामक संस्थाओं की सक्रियता के साथ एक नागरिक के रूप में हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि ऐसा कोई काम न करें जिससे प्रदूषण जानलेवा साबित हो। कोरोना संक्रमण के चलते हम मास्क लगाकर अपनी व समाज की रक्षा कर रहे हैं। श्वसनतंत्र व फेफड़ों पर महामारी का घातक प्रभाव नजर आया है। ऐसे में पटाखों से होने वाले प्रदूषण से रोगियों को श्वास संबंधी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा, जिसके लिये समाज में जागरूकता का प्रसार जरूरी है ताकि श्वास के रोगियों, बच्चों व बूढ़ों की जीवन प्रत्याशा में वृद्धि की जा सके। जहां हवा साफ है वहां भी ऐसे प्रयासों से बचना चाहिए जो प्रदूषण बढ़ाने का कारक बने। किसी की खुशी किसी की जिंदगी पर भारी नहीं पड़नी चाहिए, यही पर्व का मर्म भी है और हमारा सामाजिक दायित्व भी।