अनिल अनूप
केंद्र सरकार और 40 किसान नेताओं की वार्ता किसी घोषित निष्कर्ष तक नहीं पहुंची, लेकिन कुछ सहमतियां बनती दिखाई दे रही हैं। किसान अब भी नए कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हैं, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और मंडियों पर सरकार का जो रुख सामने आया है, उसके सुखद और सकारात्मक नतीजे हो सकते हैं। सरकार ने कानूनों में कुछ संशोधन करने के संकेत दिए हैं। संवाद शनिवार को भी होना है। इस दौरान एमएसपी का प्रारूप तय करने वाले कुछ कृषि अर्थशास्त्रियों ने इसे बहुत बड़ा मुद्दा नहीं माना है। वे ऐसे आंदोलनों को ‘राजनीतिक’ ही मानते हैं। अर्थशास्त्री मांग और आपूर्ति के सिद्धांत पर ही एमएसपी का मूल्यांकन करते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि जिस खाद्यान्न या फसल की ज्यादा मांग होगी, उसका ही बाज़ार में अच्छा एमएसपी मिलेगा। मांग कम होगी, तो कोई भी निवेशक और व्यापारी घोषित एमएसपी पर खरीद क्यों करेगा? एमएसपी का विवेकसम्मत होना बेहद जरूरी है। अर्थशास्त्री सवाल करते हैं कि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और पद्मविभूषण सम्मान लौटाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से पूछा जाए कि उनके कार्यकालों के दौरान कितनी फसलें एमएसपी पर खरीदी गईं? आज एमएसपी पर सरकारी खरीद में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी, करीब 90,000 करोड़ रुपए की, पंजाब और हरियाणा की है। पंजाब में 95-97 फीसदी किसानों की फसलें सरकार ही खरीद लेती है। यदि ऐसा है, तो फिर एमएसपी पर चीखा-चिल्ली क्यों है? किसानों को एमएसपी पर आशंकाएं क्यों हैं? अब पंजाब, हरियाणा ही नहीं, ‘हरित क्रांति’ के बाद के कालखंड में देश के 23 राज्यों से धान और 10 राज्यों से गेहूं की सरकारी खरीद की जाती है। अब तेलंगाना, झारखंड सरीखे राज्य भी इस सूची में हैं, लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि एमएसपी से ही किसानों की आमदनी कभी भी दोगुनी नहीं होगी। कमोबेश 2022 तक तो किसी भी सूरत में किसान इतने संपन्न नहीं होंगे कि उनकी आय दोगुनी हो जाए। यह एक राजनीतिक मुद्दा है। निजी क्षेत्र में भी खरीद करीब 10 करोड़ टन खाद्यान्न की होती है। एमएसपी उस पर लागू नहीं होता। दरअसल किसानों को एमएसपी के पार जाकर भी सोचना चाहिए और फसलों की विविधता पर काम करना चाहिए। इस आशय की अपील 1995-96 में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ही की थी कि किसान फसलों की विविधता पर सोचें। कृषि अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि अब गेहूं, धान आदि उगाना कम करें, क्योंकि 1960 से ’80 के दशक तक देश में जो खाद्य-संकट था, वह समाप्त हो चुका है। अब खाद्य सुरक्षा कानून के तहत आम नागरिक सुरक्षित है। गेहूं और धान के भंडारण की व्यवस्थाएं कम पड़ने लगी हैं। कई जगह खाद्यान्न खुले में पड़ा सड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने यूपीए सरकार के दौरान फटकार लगाते हुए कहा था कि यदि आप अनाज का रख-रखाव नहीं कर सकते, तो खुले में पड़ा खाद्यान्न भूखे और गरीब लोगों में ही बांट दीजिए। अब वैसा ही संदर्भ सामने है। कृषि अर्थशास्त्रियों ने दालें, तिलहन, दूध उत्पादन और मुर्गी पालन की ओर किसानों को जाने की सलाह दी है। दालें भारत को आयात करनी पड़ती हैं। दूध के क्षेत्र में सहकारी संगठनों से लाखों किसान जुड़े हैं और अच्छी आमदनी कर रहे हैं। मुर्गी पालन क्षेत्र की बढ़ोतरी-दर भी 8-10 फीसदी है। ये कारोबार निजी क्षेत्र में किए जा रहे हैं, लेकिन न तो किसी कंपनी ने किसान की ज़मीन पर कब्जा किया और न ही किसी का भुगतान मारा है। किसान नकदी फसलें भी उगाएं। इन नए क्षेत्रों की तरफ प्रवृत्त होने से एमएसपी का संकट ही समाप्त हो जाएगा, क्योंकि सिर्फ 23 फसलों पर ही केंद्र सरकार ने एमएसपी घोषित कर रखा है। बेशक धान के एमएसपी पर 43 फीसदी और गेहूं के एमएसपी पर 41 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जाहिर है कि फसलों की खरीद एमएसपी पर भी की जाती रही है। इन सालों में एक भी मौका ऐसा नहीं आया, जब एमएसपी और मंडियों के अस्तित्व पर खतरे मंडराए हों! यह दीगर है कि बाज़ार में फसलें एमएसपी से कम दाम पर बिकती रही हैं। कपास को एमएसपी पर भारतीय कपास निगम ही खरीद नहीं करता और किसानों का शोषण जारी है, जबकि यह तो सरकारी संस्थान है। ऐसी विसंगतियां सरकार और किसानों के संवाद में दूर की जा सकें, तो बेहतर रहेगा।