अनिल अनूप
आज ‘भारत बंद’ का आह्वान किया गया है। समूचा विपक्ष लामबंद है और दिन भर के बंद का समर्थन कर रहा है। करीब 400 संगठन प्रस्तावित बंद के समर्थन में सामने आए हैं। इन सभी का किसान और खेती से दूर-दूर का कोई सरोकार नहीं है। यह बंद भी किसी लॉकडाउन से कम नहीं है। बंदवालों का निशाना ‘राजनीतिक’ है और वे किसी भी तरह प्रधानमंत्री मोदी को परास्त करना चाहते हैं। लोकतंत्र और चुनाव में यह संभव नहीं हुआ, लिहाजा बंद का रास्ता अख्तियार किया गया है। बंद की योजना वाममोर्चे की है। शेष की निगाहें किसानों के एकजुट वोटबैंक पर चिपकी हैं। देश एक लंबे लॉकडाउन के संत्रास से अभी तो मुक्त होना शुरू हुआ है। आर्थिक गतिविधियों में जोश और सक्रियता दिखाई दे रही है, लिहाजा अर्थव्यवस्था भी छोटी-मोटी छलांगें भर रही है। अब किसानों की आड़ में, बेशक दिन भर के लिए, तालाबंदी थोपी जाएगी, तो उसके फलितार्थ भी समझे जा सकते हैं। बीते 12 दिनों से राजधानी दिल्ली की घेराबंदी जारी है। किसान संगठनों के हजारों चेहरे सीमाओं पर धरना दिए बैठे हैं। आवाजाही लगभग ठप्प है। किसी करीबी परिजन की मौत और अंतिम संस्कार में शामिल होना असंभव है, क्योंकि सार्वजनिक परिवहन बंद है और प्राइवेट टैक्सी वाले किसी भी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं। ऑटो-टैक्सी यूनियन ने भी बंद का समर्थन किया है। देश की राजधानी दिल्ली में आजादपुर सब्जी मंडी एशिया में सबसे बड़ी है। वहां से ही आसपास के राज्यों में आपूर्ति की जाती रही है। आजादपुर मंडी में हररोज 5500 टन फल और 6500 टन सब्जी की औसतन आवक होती है, लेकिन सीमाएं अवरुद्ध होने के कारण आवक 40-50 फीसदी रह गई है। दिल्ली में आसपास और हरियाणा के गांवों से 250 टन फल और 60 लाख लिटर दूध रोजाना आते रहे हैं। अब उन पर भी लॉकडाउन लग गया है। करीब 6500 ट्रक अलग-अलग सीमाओं के राजमार्गों पर फंसे हैं। राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जो औद्योगिक इकाइयां हैं, उनमें 80 फीसदी कच्चा माल खत्म हो चुका है। नोएडा, गुरुग्राम, फरीदाबाद आदि औद्योगिक शहर हैं, जो देश-विदेश की हजारों इकाइयों के केंद्र हैं। उनके कर्मचारी, कच्चा माल और आपूर्ति सभी किसान आंदोलन के कारण ठप्प-से हो गए हैं। हररोज करोड़ों रुपए का नुकसान हो रहा है। क्या यह लॉकडाउन सरीखा नहीं है? क्या किसान आंदोलन जन-विरोधी हो रहा है? विभिन्न अर्थशास्त्री भी आंदोलन के रुख और रवैये से हैरान और क्षुब्ध हैं। बेशक वे एमएसपी और सरकारी मंडियों के सशक्तीकरण को लेकर किसानों के साथ हैं, लेकिन वे किसानों के पुरोधा नेता स्वः महेंद्र सिंह टिकैत के उस ऐतिहासिक बयान की भी याद दिला रहे हैं, जब उन्होंने कहा था कि मंडियों ने ही किसानों को बर्बाद किया है। लिहाजा अर्थशास्त्रियों का सवाल है कि किसान केंद्र सरकार और राज्य सरकारों से यह मांग क्यों नहीं करते कि मंडियों को किसान नेतृत्व के हवाले किया जाए? इससे बिचौलियों और दलालों के ‘खेल’ भी खत्म हो सकते हैं। ‘भारत बंद’ बेमानी है। हम किसान आंदोलन और उनकी अधिकतर मांगों के समर्थक रहे हैं। हमने भी बार-बार यह सवाल उठाया है कि एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने में सरकार को क्या दिक्कत है। संभव है कि सरकार जो संशोधन लाने के आश्वासन दे रही है, उनमें ऐसे प्रावधान शामिल हों, लेकिन अर्थशास्त्री ऐसी रपटों के संदर्भ भी दे रहे हैं कि कोरोना-काल और लॉकडाउन के बाद 1.20 करोड़ से ज्यादा नए गरीब हमारी पहले से ही गरीब आबादी में जुड़ जाएंगे। वैश्विक स्तर पर भुखमरी के हालात तो और भी वीभत्स हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम का विश्लेषण है कि 2020 के अंत तक 13 करोड़ और लोग भुखमरी की स्थिति में पहुंच सकते हैं। जाहिर है कि उनमें भारतीय भी होंगे! हमें लगता है कि बंद की आड़ में राजनीति करने वालों को ऐसे सत्यों की जानकारी भी नहीं होगी, लिहाजा आंदोलन के पीछे छिप कर अराजकता फैलाने और देश-विरोधी गतिविधियों के हम पक्षधर भी नहीं हो सकते। किसान पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उप्र, उत्तराखंड के अलावा कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र से भी कूच कर रहे हैं। आंदोलन का विस्तार किसानों की ताकत बढ़ा सकता है, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्य लोगों ने क्या पाप किया है कि वे आज भी लॉकडाउन की तकलीफें झेल रहे हैं?