अनिल अनूप
दुर्भाग्यपूर्ण है कि केंद्र सरकार और किसानों के बीच संवाद नाकाम रहे हैं। सरकार के लिखित प्रस्ताव को भी खारिज करने के बाद किसान आंदोलन उग्र और व्यापक होता लग रहा है। लोकतंत्र की परवाह किसी को नहीं है। अर्थव्यवस्था पर भी कोई चिंतित नहीं लगता। सुधारों का भविष्य अनिश्चित है। आज किसान अपने महान नेताओं पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत की मांगों और प्राथमिकताओं को भी भूल चुके हैं। किसानों का ही एक बिम्ब महाराष्ट्र की नासिक मंडी के बाहर दिखाई दिया, जिन्हें बंद और एकाधिकार वाली मंडी नहीं चाहिए, बल्कि खुला बाज़ार चाहिए, ताकि उनका प्याज औसतन 6-7 रुपए प्रति किलो न बिके। खुदरा बाज़ार में प्याज फिलहाल 80 रुपए किलो बिक रहा है। क्या इन आर्थिक फासलों को आंदोलनकारी किसान नहीं जानते-समझते? फिलहाल आंदोलन हिंसक नहीं है, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली की चारों ओर से नाकेबंदी हो चुकी है। यदि किसानों की एक ही रट है कि विवादास्पद कृषि कानून वापस लिए जाने चाहिए और इस रट के आगे कोई भी दलील नहीं चलेगी, तो फिर भारत सरकार के साथ संवाद का नाटक क्यों किया जाता रहा? शायद अब किसान बातचीत भी न करें, जब तक सरकार लिखित में कानून वापस लेने का आश्वासन नहीं देती! सरकार ने कई महत्त्वपूर्ण संशोधन करने और नई व्यवस्थाएं लागू करने का लिखित प्रस्ताव भेजा था, लेकिन गरमदली किसानों की सुई वहीं अटकी है कि सरकार कानूनों को रद्द करे, जबकि किसानों में ही कुछ नरमपंथी आवाज़ें ऐसी हैं, जिनकी दलील है कि सरकार के लिखित आश्वासन के बाद आंदोलन खत्म करना चाहिए और किसानों की एक कमेटी सरकार के साथ आश्वासन लागू कराने में जुट जाए, लेकिन गरमदली आवाज़ें ज्यादा गूंज रही हैं, लिहाजा गतिरोध के हालात गंभीर होते जा रहे हैं। किसानों के लिए नए, निजी और खुले बाज़ार की मांग 2000 के दशक से निरंतर की जाती रही है। 2003, 2007 और 2017 में जो भी सरकारें रही हैं, उन्होंने कृषि सुधार कानूनों के मसविदे तैयार किए थे। 2003 और 2017 में तो केंद्र में भाजपा नेतृत्व की सरकारें रही हैं। उन मसविदों में निजी बाज़ार की संभावनाओं को जगह दी गई और मौजूदा मंडियों के एकाधिकार को कम करने के प्रावधान किए गए। बल्कि 2013 में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान कृषि मंत्रालय ने एक कमेटी का गठन किया, जिसमें 10 राज्यों के कृषि मंत्री थे। उनमें पंजाब और हरियाणा सरकारों के कृषि मंत्री भी शामिल किए गए थे। उस कमेटी ने भी खुले बाज़ार की सिफारिशें की थीं। मौजूदा कानूनों में भी निजी और खुली मंडियों की वैकल्पिक व्यवस्था के प्रावधान हैं, ताकि किसान को फसल के ज्यादा दाम मिल सकें। दरअसल पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए तो एक विश्वसनीय और तैयार बाज़ार है-भारतीय खाद्य निगम। उनके लिए तो निजी मंडियां बेमानी हैं, क्योंकि उनके गेहूं और धान सरकारी खरीद में बिक जाते हैं। जरा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के संदर्भ में गेहूं और धान के पार जाकर भी सोचना चाहिए, क्योंकि निजी क्षेत्र ही इनके अलावा अन्य फसलों के मुख्य खरीददार हैं। कोई भी सरकार, बेशक किसानों की अपनी सरकार क्यों न हो, इतने संसाधन नहीं जुटा सकती कि एमएसपी की नीति सभी फसलों पर लागू कर सके। अर्थशास्त्रियों के विश्लेषण हैं कि खुली खरीद और लोचदार बजट ही एमएसपी को लागू करने के सिद्ध रास्ते हैं। पंजाब और हरियाणा के किसानों को, दालों और सेब के संदर्भ में, अपने नाकाम अनुभवों से सबक लेना चाहिए। क्या निजी क्षेत्र के खरीददार ‘डकैत’ हैं कि किसानों का सब कुछ लूट कर ले जाएंगे? अभी तक ऐसा क्यों नहीं हुआ? भाजपा एक प्रयोग कर सकती है। उसकी कई राज्यों में सरकारें हैं। उसे बाज़ार को मुक्त और खुला कर देना चाहिए और निवेश, खरीद को बढ़ावा देना चाहिए। यकीनन गेहूं और धान के उत्पादकों के अलावा, जो अन्य फसलें उगाते हैं, उनके कारोबार में बढ़ोतरी होगी। व्यापार देश की सीमा के बाहर भी किया जा सकेगा। घरेलू और विदेशी बाज़ारों तक किसान की सहज पहुंच होनी चाहिए। यह बहुत लंबी कवायद नहीं है। उदारीकरण और मुक्त व्यापार का बड़े स्तर पर कांग्रेस सरकार ने प्रयोग किया था, जिसका अनुसरण आज भी किया जा रहा है, लिहाजा कृषि सुधारों का अंत भी नहीं देखा जा सकता। बेशक हमारे किसानों की बुद्धि और समझ पर कोई सवाल नहीं, वे ‘अन्नदाता’ हैं, लेकिन संभव है कि उनके पूर्वाग्रह उन्हें अर्थशास्त्र और सुधारों से दूर रखे हों। इस पहलू पर भी कोई किसानों को विस्तार से बताए।