अनिल अनूप
कथित किसान नेता हन्नान मोल्ला सीपीएम के लोकसभा सांसद रहे हैं। उन्होंने कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के साथ संवाद में भी भाग लिया और नियमित रूप से मीडिया को ब्रीफ करते रहे हैं। एक और किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि वह सोच के आधार पर कम्युनिस्ट हैं। सिंघु बॉर्डर पर सीपीआई के मजदूर संगठन एटक, छात्र संगठन एसएफआई, वामदलों के अधिकृत झंडे देखे जा सकते हैं। बीते कुछ दिनों में हमने ‘लाल सलाम’ के नारे भी सुने हैं। आंदोलन और प्रदर्शन की शैली, ढपली बजाना और मुट्ठी भींच कर नारेबाजी करना आदि वामपंथी हैं। वामपंथी होना अपराध नहीं है और न ही हम उन्हें खालिस्तानी, पाकिस्तानी, नक्सली करार देने का दुस्साहस कर सकते हैं। वे भी भारतीय हैं और आंदोलन करना उनका संवैधानिक अधिकार है। यदि यह आंदोलन वाममोर्चे का है, तो उसे किसान आंदोलन न कहा जाए। उसे वामपंथी विरोध-प्रदर्शन या धरना कुछ भी कहा जा सकता है। दिल्ली की सीमाओं पर बीते एक माह से डटे किसानों का आंदोलन माना जा रहा है। आंदोलन की आत्मा और मुद्दा यही है। सरकार को तमाम सूचनाएं हैं कि आंदोलन की आड़ में क्या चल रहा है और कौन सक्रिय है? किसानों को कंपा देने वाली बर्फीली ठंड में नंगे बदन और अपने शरीर पर मांगों की इबारतें लिख कर प्रदर्शन करते देख पीड़ा और क्षोभ होता है। यकीनन खाद्य सुरक्षा का कवच इतना निरीह नहीं होना चाहिए। उसकी मांगें भी फालतू नहीं हैं। किसान अपनी रोजी-रोटी का अधिकार सुनिश्चित कराने को आंदोलित हैं, आक्रोशित हैं। हम बार-बार लिखते रहे हैं कि आंदोलन में सैकड़ों चेहरे हमारे बुजुर्गों के रहे हैं। क्या ऐसे दिनों के लिए वे जिंदगी भर धरती का सीना कुरेदते और चीरते रहे, ताकि देशवासियों को अन्न नसीब हो सके और भुखमरी का आलम न रहे? आंदोलन के मद्देनजर 30-35 मौतों का सच भी हमें कंपा देता है। सवाल आंदोलन के बीच कुछ अवांछित गतिविधियों को देखकर उठाए जा रहे हैं कि क्या किसान आंदोलन का रंग अब पूरी तरह ‘लाल’ हो गया है? क्या आंदोलन एक वामपंथी विरोध-प्रदर्शन में तबदील हो गया है? क्या वामपंथी दखल के कारण ही भारत सरकार के साथ सभी संवाद नाकाम हो रहे हैं और दोनों पक्ष अडि़यल रुख अपनाए हुए हैं? क्या इस तरह किसान आंदोलन का कोई निष्कर्ष हासिल किया जा सकता है? क्या अब संवाद की भूमिका ही ‘डिरेल’ होती जा रही है? डर लगता है, क्योंकि समानांतर तौर पर आंदोलन के नए आयाम उभर रहे हैं। हरियाणा के फतेहाबाद और महाराष्ट्र के नासिक से हजारों किसान दिल्ली की ओर कूच कर चुके हैं। दूसरी तरफ कृषि कानूनों के समर्थक किसानों ने धमकी देना शुरू कर दिया है कि यदि कानून रद्द किए गए, तो वे आंदोलन पर बैठ जाएंगे, क्योंकि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उप्र ही हिंदुस्तान नहीं है। देश में 28 राज्य और 8 केंद्रशासित क्षेत्र हैं। उनके सभी किसान आंदोलित नहीं हैं। इन आरोपों और विरोधाभासों के बीच ही पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह के जन्मदिन पर मनाया जाने वाला ‘किसान दिवस’ भी किसानों और सरकार के रवैये को लचीला नहीं बना सका। इसी तरह एक और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर ‘सुशासन दिवस’ भी आम दिनों की तरह बीत जाएगा, बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने 9 करोड़ किसानों के बैंक खातों में 18,000 करोड़ रुपए की सम्मान राशि हस्तांतरित की है। यह तो योजना की किस्त भर थी, लेकिन आंदोलित किसानों की मांगें सुनने और उन्हें मान लेने में क्या दिक्कत है? किसान भी तो देश के हैं। प्रधानमंत्री उन्हें ‘अन्नदाता’ और ‘भगवान’ मानते हैं और नमन भी करते रहे हैं, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक दर्जा देने में क्या अड़चनें हैं? कमोबेश प्रधानमंत्री देश को स्पष्ट तो करें। प्रधानमंत्री या कृषि मंत्री यह भी खुलासा कर विरोधियों को बेनकाब करें कि 20 राज्यों में एपीएमसी मंडियों पर कानून बनाए जाते रहे, तो उनकी स्थिति आज क्या है? कॉन्टै्रक्ट फार्मिंग बंगाल में वाममोर्चा सरकार के दौरान लागू की गई। क्या वे निजी कारोबारी पूंजीपति नहीं थे? देश के कई राज्यों में अंबानी और अडानी की सहयोगी कंपनियां दशकों से काम कर रही हैं। क्या उन पर आपत्ति नहीं है। हम किसी दिन उन कंपनियों का भी ब्यौरा देश के सामने रखेंगे। बहरहाल अब बहुत देर हो चुकी है। कमोबेश सरकार को ही अब विनम्र होना चाहिए।