अहमदाबाद। छह मार्च 1971 को जब पोर्ट ऑफ स्पेन में पांच फुट पांच इंच का भारतीय लड़का पहली बार उस समय की सर्वश्रेष्ठ कैरेबियाई टीम के खिलाफ उसके घर में बिना हेलमेट के उतरा तो किसी को नहीं लगा था कि वह इतनी दूर तक जाएगा। वह लड़का पहले दुनिया का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज बना और बाद में क्रिकेट का सबसे बड़ा दिग्गज। जी हम बात कर रहे हैं 71 साल के सुनील गावस्कर की। शनिवार को गावस्कर के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण के 50 वर्ष हो जाएंगे। इस मौके पर अभिषेक त्रिपाठी ने सुनील गावस्कर से विशेष बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंश-
-अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण के 50 वर्ष, क्या सोचते हैं?
-यह 50 वर्ष बहुत खुशी देने वाले रहे हैं। यह मेरा सौभाग्य था कि भारत के लिए खेलने का मौका मिला। कुछ ऐसे क्षण थे जिसका हिस्सा बनने का मौका मिला। कुछ अच्छे क्षण थे और कुछ खराब क्षण जिसमें भारतीय टीम ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था। हालांकि हम उससे भी उबरे और जीत हासिल की। निश्चित तौर पर इस समय विशेष तरह की अनुभूति हो रही है।
-क्रिकेटर नहीं होते तो क्या होते?
-मेरा मन था कि मैं डॉक्टर बन जाऊं। मेरी बुआ डॉक्टर थीं। मैं उनकी डिस्पेंसरी में जाया करता था। वहां मध्यम वर्ग और गरीब लोग इलाज कराने आते थे। वह उनकी देखभाल करती थीं। मरीजों की आंखों में मेरी बुआ के लिए जो आदर और प्यार था उसे देखकर मैं डॉक्टर बनना चाहता था। मैं हमेशा मानता आया हूं कि ये दुनिया का सबसे बेहतर प्रोफेशन है। किसी को कोई बीमारी हो तो आप ठीक कर लेते हैं, किसी को दर्द हो रहा है तो दवाइयां देते हैं, दिलासा देते हैं। हालांकि जब मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में आया तो मुझे पता चला कि मेरे अंदर उतनी प्रतिभा नहीं है कि मैं आगे डॉक्टर बनूं।
-क्या इसी वजह से आप बीमार बच्चों की मदद करते हो?
-मैं हार्ट टू हार्ट फाउंडेशन का ट्रस्टी हूं। ये तीन जगह पर सत्य साई संजीवनी अस्पताल चलाते हैं। इसमें छोटे बच्चे आते हैं जिन्हें दिल की बीमारी होती है। 17-18 साल तक कभी तो उससे भी ज्यादा समय तक उनका इलाज मुफ्त होता है। जो मेरे से होता है वह मैं सहयोग करता हूं, लेकिन यह कुछ भी नहीं हैं क्योंकि जरूरत इससे बहुत ज्यादा है। मैं आपका थोड़ा वक्त लेकर बताना चाहूंगा कि हर साल भारत में तीन लाख से ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं जिनको कंजेनिटल हार्ट डिफेक्ट होता है। इसमें से 90,000 से ज्यादा अपना अगला जन्मदिन भी नहीं देख पाते। उसमें अगर थोड़ा सा भी कर लूं तो आनंद मिलता है। जब माता-पिता इन बच्चों को लेकर अस्पताल आते हैं तो उनके चेहरों पर आशा नहीं होती है। ऑपरेशन के बाद उनको जब बताया जाता है कि आपका बच्चा ठीक हो गया तो उनके चेहरे पर जो आनंद आता है, वह मैंने देखा है। किसी मैच में दोहरा शतक लगाने से ज्यादा इसमें आनंद मिलता है।
-आप पहलवान भी बनना चाहते थे?
-जी हां, मेरे ताऊ मुझे वर्ली के वल्लभभाई पटेल स्टेडियम में लेकर जाया करते थे। वहां पर फ्रीस्टाइल कुश्ती करने दारा सिंह जी आया करते थे। वहां पाकिस्तान से अकरम नाम के पहलवान भी आया करते थे। जब दारा सिंह और अकरम के बीच कुश्ती होती थी तो बहुत मजा आता था। दारा सिंह जब एरोप्लेन स्पिन करते थे, मतलब जब विपक्षी को सिर पर उठाकर चकरी जैसा घुमाते थे तो सब उठकर जाने लगते क्योंकि सबको पता चल जाता था कि अब मुकाबला खत्म हो गया। एक उनका स्कॉर्पियन स्टिंग दांव होता था। वह विरोधी पहलवान को पैरों से जकड़ लेते थे, और हम जीत जाते थे। तब मुझे कुश्ती में बहुत लगाव था।
-क्या अभी कुछ ऐसा मलाल है कि वो काम मैं नहीं कर पाया?
-नहीं, कोई मलाल नहीं है। मैं काफी संतुष्ट हूं। भगवान की दया है। उसी की वजह से आज मैं यहां हूं।
-सात जून 1975 को इंग्लैंड के खिलाफ विश्व कप में 174 गेंदों में आपने 36 रन बनाए। क्या आप वनडे फॉर्मेट से खफा थे?
-देखिए क्या हुआ, उस समय भारतीय टीम ज्यादा वनडे खेलती नहीं थी और हमें उसका अभ्यास नहीं था। पिच पर थोड़ी सी घास थी और गेंद हिल रही थी। 10-15 ओवर तो गेंद बल्ले में आई ही नहीं। मैं या तो प्ले एंड मिस कर रहा था या गेंद पैड में लग रही थी। जब गेंद हॉफ वॉली आई या हाफ पिच पर आई तो मैंने उस पर कट और ड्राइव किए, लेकिन गेंद सीधे फील्डर के पास गई। दो-तीन साल पहले (2018 में इंग्लैंड के खिलाफ वनडे में) उसी लॉर्ड्स मैदान पर दिग्गज बल्लेबाज महेंद्र सिंह धौनी को खेलते देखा, जिनके पास मुझसे बहुत ज्यादा शॉट हैं। उनकी पारी वैसी ही चल रही थी। वह जहां भी शॉट मार रहे थे, गेंद फील्डर के पास जा रही थी। आप शायद थे उस मैच में.. आखिरकार उन्होंने कुछ बड़े शॉट लगाए। वह मैच भारत हार गया था। उनकी पारी देखकर मुझे अपनी 36 रनों की पारी याद आ गई। मैं तुलना नहीं करना चाहता क्योंकि सीमित ओवरों के क्रिकेट में धौनी मुझसे बहुत अच्छे क्रिकेटर हैं। मैं उन्हें तुलना करके नीचे नहीं लाना चाहता है। कभी-कभी अच्छी पारियां देखकर आपको अपनी बल्लेबाजी याद आ जाती है। ऐसे ही किसी खराब पारी को देखकर आपको कुछ याद आता है। उस मैच में जब मैंने धौनी को संघर्ष करते हुए देखा तो मुझे पहली बार अपनी पारी याद आ गई। मैंने उनकी पारी देखकर सोचा कि 40-42 साल पहले मैंने इसी मैदान पर फालतू पारी खेली थी।
-आधा दशक हो गया आपको पहला अंतरराष्ट्रीय मैच खेले हुए। क्रिकेट कितना बदला?
-मेरे हिसाब से यह खेल बहुत बदला है और अच्छे के लिए बदला है। पिछले 15 साल में यह करियर का विकल्प बन गया है। आइपीएल से पहले और सेटेलाइट टीवी राइट्स आने से पहले हर क्रिकेटर खेलने के साथ नौकरी भी करता था। तब भारतीय टीम भी साल में 10-11 महीने क्रिकेट नहीं खेलती थी। तब तीन-चार महीने का क्रिकेट था और उसके बाद क्रिकेटरों को नौकरी करनी होती थी। क्रिकेटर ऑफ सीजन में टाटा, रेलवे, एसबीआइ और अन्य कंपनियों में 10 से छह की नौकरी करते थे। अब वह नहीं है। आइपीएल और प्रसारणकर्ता से मिलने वाले धन की वजह से क्रिकेटर अब लगातार 12 महीने क्रिकेट पर ध्यान लगा सकते हैं। अभ्यास कर सकते हैं। यह अच्छी बात है। हां, अब खेलने के अंदाज में क्रिकेट कुछ बदल गया है। अब बल्लेबाज बहुत कम डिफेंसिव खेलते हैं। वे फटाफट आक्रामक खेलना चाहते हैं। जब गेंद सीम कर रही हो, स्विंग या स्पिन कर रही हो तो दिक्कत होती है। तब डिफेंस नहीं दिखाई देता। हालांकि, यह भी सच है कि आक्रामक शॉट देखने में मजा आता है।
-इस सीरीज में भी कमजोर डिफेंस की बात हुई है। बल्लेबाजों को टी-20 और टेस्ट की बल्लेबाजी में सामंजस्य कैसे बनाना चाहिए?
-ये तो मानसिकता की बात है। अगर आप रोहित और विराट को देखेंगे तो उनकी मानसिकता हर प्रारूप के लिए बदलती है। इसके लिए आपको दिमागी तालमेल बैठाना होता है और फिर बल्ले की गति में तालमेल करना होता है। इसी वजह से वे दोनों सभी प्रारूप में सफल हैं। अगर ये होता रहेगा तो कभी दिक्कत नहीं होगी। जो ये नहीं कर पा रहे हैं वह संघर्ष कर रहे हैं। अब बहुत कम ऐसी विकेट मिलती हैं जहां चैलेंज होता है। आजकल वनडे और टी-20 क्रिकेट पाटा पिच में होता मिलेगा, बाउंड्री छोटी हो गई हैं, बल्ले ताकतवर आ रहे हैं, अगर मिस हिट भी होती है तो गेंद छक्के के लिए जाती है, इसलिए बल्लेबाज डिफेंस के बारे में कम सोचते हैं। अगर दो-तीन डॉट गेंदें गई तो फिर उनके दिमाग में आता है कि इसको बाहर जाकर लपेटूं। अगर शॉट सही हो गया तो छक्का जाता है। बल्लेबाज जेल ब्रेक शॉट इस्तेमाल करते हैं। यह कभी सफल होता है, कभी नहीं। जहां पर गेंद सीम हो रही, स्विंग हो रही, वहां पर आक्रामक शॉट चलता नहीं है।
-आपके पसंदीदा क्रिकेटर कौन रहे हैं?
-मेरे सबसे पसंदीदा क्रिकेटर एमएल जयसिम्हा थे। अभी तीन दिन पहले ही उनका जन्मदिन था। वह अब इस दुनिया में नहीं हैं। मेरा सौभाग्य था कि मेरा जो पहला वेस्टइंडीज दौरा था उसमें वह भी शामिल थे। उनका जो अनुभव था उससे सीखने का मौका मिला। उनके साथ कई सीनियर खिलाड़ी जैसे अजित वाडेकर, इरापल्ली प्रसन्ना और सत्य साई थे। इनसे काफी सीखा। उसके बाद में गुंडप्पा विश्वनाथ, कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग, महेला जयवर्धने मुझे पसंद थे। जिस तरह से वे बल्लेबाजी को आसान करते थे, उन्हें देखने में काफी मजा आता था। अभी मैंने पूरी लिस्ट नहीं बताई है क्योंकि मुझे कई और क्रिकेटर पसंद हैं। कुछ नाम भूल गया हूं, मुझे माफ करिएगा।
-वर्तमान क्रिकेटरों में कौन पसंदीदा है?
-अभी जो खेल रहे हैं उसमें मुझे रोहित शर्मा बहुत पसंद हैं क्योंकि वह बल्लेबाजी को बहुत आसान करते हैं। दूसरे केन विलियमसन हैं जिनके पास बहुत अच्छी तकनीक है। वह जिस तरह से सारे प्रारूप में बल्लेबाजी करते हैं वह बहुत अच्छा लगता है। विराट कोहली की जो मानसिकता है, जिस तरह से वह बल्लेबाजी भी करते हैं वह भी अच्छा है। पाकिस्तान के बाबर आजम को मैंने ज्यादा नहीं देखा है, लेकिन जो भी देखा है उसमें वह बहुत प्रभावी नजर आए हैं। उनको देखकर भी मजा आता है
-71 बसंत पार करने के बावजूद आप अभी भी बहुत यंग हैं। तीसरे टेस्ट मैच के बाद आप जिस तरह दर्शकों के उत्साह बढ़ाने पर मैदान के किनारे थिरक रहे थे, ऐसी एनर्जी कहां से लाते हैं?
-यह तो भगवान की कृपा है। (मजाक में) मैं ये कहूंगा कि ऐसी पत्नी खोजें जो किचन में नहीं जाती हो। मैंने अपनी पत्नी को किचन में नहीं जाने दिया। बात सीधी सी है भाई, अगर बीवी खाना बनाती है तो आपको पसंद हो या ना हो पूरा खाना ही पड़ता है और जितना आप खाएंगे वजन बढ़ता जाएगा। अगर आपकी बीवी ऐसी है जो किचन में नहीं जाती तो वह नहीं कहेगी कि ये खा लो, वो खा लो। फिर आपके पेट में जितनी जगह है उतना ही खा सकते हो। शायद उसी की वजह से मेरी काफी मदद हो गई।
-क्रिकेट में आपका सबसे अच्छा और खराब पल?
-मेरा सर्वश्रेष्ठ पल एक ही है, जब भारतीय टीम ने 1983 में विश्व कप जीता था। वह मेरे लिए अविस्मरणीय पल था और हमेशा वही रहेगा। और सबसे खराब पल वही है जिसका आपने जिक्र किया था, वह 36 रनों की पारी। मैं वहां अपने देश के लिए कुछ नहीं कर पाया।
-आप टेस्ट में 10,000 रन बनाने वाले पहले बल्लेबाज थे। क्या आपको लगता है कि विश्व टेस्ट चैंपियनशिप से क्रिकेट का यह फॉर्मेट बच जाएगा?
-हो सकता है कि इससे टेस्ट बच जाए। हालांकि अगर देखा जाए तो आजकल जो क्रिकेट खेलते हैं वे सभी टेस्ट क्रिकेट के फैन हैं। वे सब जानते हैं कि आगे जाकर इतिहास में अगर उनका नाम होना है तो उन्हे टेस्ट में रन बनाने होंगे, विकेट लेने होंगे। वनडे और टी-20 के रन ठीक हैं, लेकिन टेस्ट में जिन्होंने सफलता प्राप्त की है उनको ही याद किया जाएगा।