गौरव शुक्ला की कलम से
वह एहसास जो दिल में भावों को भरता है जो दिन में भी ख्वाबों को मुकम्मल करता है उसे माँ कहते हैं सिर्फ माँ कहते हैं जो रातों को जाग कर हमको सुकून की नींद देती है जो आई अड़चनों को जिंदगी में वीध देती है उसे माँ कहते हैं सिर्फ माँ कहते हैं जो तन को भूल कर अपने हमारी देह ढकती है जो अपनी भूख भुलाकर हमारा पेट भरती है उसे माँ कहते हैं सिर्फ माँ कहते हैं हमारे ख्वाब उसके हैं हमारी रहा उसकी है हमारे गम भी उसके हैं हमारी चाह उसकी है जो खुद को भूल कर हमको मुकम्मल इंसा बनाती है जो पेड़ के जैसे हमको छांव देती है जो कांटों में भी हमको मलमली वाह देती है जो त्याग करके हमारा जहां बसाती है उसे माँ कहते हैं सिर्फ माँ कहते हैं जिसकी जिंदगी सिमटी बस परिवार के खातिर जिसकी हां भी और ना भी सिर्फ औलाद के खातिर जिसकी चाह भी और राह भी सिर्फ औलाद के खातिर जिसका जन्म भी और मृत्यु भी परिवार के खातिर उसे माँ कहते हैं सिर्फ माँ कहते हैं जिसमें आंसुओं को पीने की सामर्थ होती है जो रिश्तो को संजोने की पिरोने की अभ्यर्थ होती है वह पहला शब्द जो हर कष्ट में औलाद के मुख से निकलता है उसे माँ कहते हैं सिर्फ माँ कहते हैं