अभिमन्यु शुक्ला की रिपोर्ट
जगम्मनपुर/ जालौन जनपद में यमुना नदी सहित पांच नदियों के संगम तट पर बसा कस्बा जगम्मनपुर ऐसी पौराणिक कथाओं को छुपाए हुए है, जिसे देखने के लिए आज देश-विदेश के पर्यटक यहां आते रहते हैं। पचनद के रूप में अति विख्यात यहां का इलाका आज भी संबत बारह सौ के अवशेषों से भरा पड़ा है। पर्यटन के रूप में विख्यात इस क्षेत्र के विकास की ओर पर्यटन विभाग यहां के बाशिंदों को कचोट रहा है। जनश्रुति के अनुसार पचनद क्षेत्र महाभारत के दानवीर राजा कर्ण का माना जाता है। कहा जाता है कि राजा कर्ण सबा मन सोना रोज दान किया करता था।इसी कारण उसे दानवीर कर्ण की उपाधि से विभूषित किया गया था। पहले राजा कर्ण का असली नाम सिंहभूम था। सिंह भूमि एक पराक्रमी योद्धा तो था ही साथ साथ मां कर्ण देवी का अनन्य भक्त भी था।यैसी लोकोक्ति है कि मालवा नरेश विक्रमादित्य ने जब राजा कर्ण की दानवीरता की कहानी सुनी तो वह आश्चर्य में पड़ गया। कि दानके लिए इतना सोना कहां से लाता है। यह रहिस्य जानने के लिए विक्रमादित्य भेष बदलकर राजा कर्ण के यहां राम सेवक के रूप में रहने लगा। इसी दौरान राजा कर्ण की तपस्या देखकर हतप्रभ रह गया। इस कथा की पुष्टि इसलिए की जाती है कि विक्रमादित्य का कार्यकाल ईसा पूर्व संबत का था। इस स्थान पर प्राप्त उत्तरी श्याम पॉलिश युक्त मिट्टी के बर्तनों को पुरातत्व बेत्तागण ईसा 600 वर्ष का मानते हैं। छत्रसाल कालीन लाल कवि ने अपने ग्रंथों में अपने महाराज की बिजय का उल्लेख करते हुए कनार राज्य का जिक्र किया था। बदन नृप की छटवी शाखा में कर्ण नाम के राजा हुए, जिन्होंने सोलंकी नामक दानव को मार कर कनार राज्य बसाया। संबत 936 में जगम्मनपुर के क्षेत्र में यमुना किनारे दक्षिण में कर्णावती राजधानी स्थापित की गई तथा कर्ण दुर्ग बसाया गया। इसे बाद में कनार राज्य कहलाने लगा। जिसकी राजधानी जनपद के कालपी में बनाई गई थी।1528 ईसवी में फतेहपुर सीकरी के मैदान में मेवाड़ के राजा राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूतों और बादशाह में जबरदस्त युद्ध हुआ था। उस समय राणा सांगा की मदद के लिए कनार राज्य से भी कटीली सेना गई थी जहां पर घनघोर युद्ध हुआ, लेकिन इस घनघोर रण में बाबर बिजयी हुआ, इसके बाद बाबर चंदेरी गया, फिर कनार चढ़ आया और कनार के प्राचीन गढ़ को अपनी आग उगलती तोपों से इस किले को उड़ा दिया तथा वहां स्थित वहां के देवी देवताओं की प्राचीन मूर्तियों को तोड़कर नष्ट कर दिया गया था। इन खंडित मूर्तियों के अवशेष आज भी जगम्मनपुर करण खेड़ा पर मौजूद है। इस खंडहर किले को देखने के लिए पर्यटक हमेशा आते जाते रहते हैं बिकृमी संबत ग्यारह सौ सात में बीरान हुए मान बंशों की हैं, जो ईंटें प्राप्त हुईं उन
ईंटों की मांप के अनुसार यह क़िला नौवीं सताब्दी का माना जा रहा है।
प्राप्त सामग्री के मूल्यांकन में यहां पर अद्भुत शिवलिंग प्राप्त हुआ, जो चक्र कुंडल पहने हुए है यह शीश चंदेल कालीन है। पचनद के क्षेत्र में श्याम पोलिश के ढुमडे मिले इनका चलन 600 ईसा पूर्व का माना जाता है। उस समय एनबीसी पात्रों का चलन था कर्ण खेरा में 600 ईसापूर्व से 200 ईसा पूर्व काल की सभ्यता रही होगी। इसके अलावा काफी मात्रा में मिट्टी के बर्तनों के अवशेष भी यहां प्राप्त हुए। मिट्टी के बर्तनों का गढ़वा मिट्टी के गोल पहिया तांबे के सिक्के भी प्राप्त हुए जो मोहिद्दीन वरहक साह के हैं। जिनका कार्यकाल 1240 से 1242 तक का था रजिया सुल्तान 1236 से 1240 तक दिल्ली के तख्त पर बैठी थी, इससे यह बात सिद्ध होती है कि सल्तनत काल में दिल्ली तक पहुंच रखता था जनपद का कर्ण खेरा जगम्मनपुर की ऐतिहासिकता को सजोने वाली वस्तुओं को मुख्यालय स्थित बुंदेलखंड संग्रहालय में रखा गया है जिन्हें देखने के लिए हमेशा लोग आते जाते रहते हैं।
“करण देवी की अध कटी मूर्ति उज्जैन के हर्षिद मंदिर में स्थापित है”
जुहीखा पुल के पार यमुना नदी के किनारे जगम्मनपुर के पास दानवीर कर्ण की यह स्थली आज भी लोगों के लिए कोतूहल बनी हुई है। यहां स्थापित कर्ण देवी की ऐतिहासिक मूर्ति को राजा विक्रमादित्य ने राजा कर्ण की दानवीरता की खोज के दौरान खंडित कर दिया था। महांरात्रि कर्णवती की स्थापित आदम कद मूर्ति का कमर के ऊपर का हिस्सा भी विक्रमादित्य ने काट दिया और उसके धड़ को उज्जैन में ले जाकर स्थापित कर दिया था। उज्जैन में कर्णवती की अधकटी मूर्ति को श्रद्धालू आज भी हर्षित देवी के नाम से पूजा अर्चना करते हैं। लोग उज्जैन में स्थापित इस आदम कद मूर्ति को श्रद्धालु विक्रमादित्य की कुलदेवी के रूप में पूजते हैं। इन कुलदेवी का आधा हिस्सा कमर से पैर तक आज भी जुहीखा पुल के पास जगम्मनपुर के कर्ण खेरा पर विराजमान हैं। जिनकी कर्ण देवी के नाम के रूप में पूजा अर्चना की जाती है। कर्णवती की इस मूर्ति की कहानी शायद पर्यटन बिभाग को जानकारी में नहीं है और ना ही इस के इतिहास को जानने की कोशिश की है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह इस पौराणिक क्षेत्र की ऐतिहासता का सर्वेक्षण कराकर एतिहासिक किंवदन्तियां हजारों वर्ष तक पुनर्जीवित रह सकती हैं। राजनीतिक दलों से लेकर सामाजिक संस्थाएं विकास पर्यटन की तो बात करते हैं पर धरोहरों के संस्करण की आवाज यदा-कदा ही उठाई जाती है ,हम नहीं चेते तो यह पुरातत्व संपदा धार्मिक जगह से ओझल हो जाएगी, इसे बचाने की जिम्मेदारी प्रशासन की है सहयोग जनता का भी है। देर की तो न जाने कितने मंदिरों से पुरातत्व संपदा विलुप्त हो जाएगी और हमारी आगे आने वाली युवा पीढ़ी को किस्से-कहानियों में सुनना पड़ेगा, एतिहासिकता की जानकारी देने की जिम्मेदारी हमारी आपकी है। तो केवल आपको मंच स्थापित करा रहा है। आपके द्वारा उपलब्ध कराई गई समस्या को हम उन हमारे पाठकों तक पहुंचाएंगे जो इससे अनजान हैं।