आज 7 नवम्बर को “विद्यार्थी दिवस” को समर्पित आलेख
-हंसराज हंस
सीखना- सिखाना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।बच्चा हो,जवान हो चाहे वृद्ध। सभी जीवन भर सीखते रहते है।
यहां सीखने-सिखाने का अर्थ महज पढ़ना-लिखना ही नही है।बल्कि इसमे तमाम सूचनाएं, जानकारियां व अनुभव भी शामिल है। जो हमे समाज से, बड़ों, छोटों से,सहपाठियों से,अपने परिजनों से ,प्रकृति से तमाम उन चीजों से है। जिनसे हम कुछ नया देखकर, सुनकर, अनुभव करके,अनुसरण करके,अभ्यास करके,बार- बार गलतियां करके बिना भय,डर के रूचि के साथ , आनंद के साथ सीखते ही नहीं बल्कि मौका आने पर सीखी हुई बातो को व्यवहार मे भी उपयोग करते है। और यह सारी कवायद हम इसलिए करते है की हमारा सामाजिक जीवन हम बेहतरी के साथ जी सके।
अब हम बात करते हैं विद्यालय में बालकों के सीखने- सिखाने की
पहले हमें यह भी जानना जरूरी है की बच्चे आखिर सीखते कैसे है?
इस प्रश्न के उत्तर में वह तमाम बातें जो उपर कही गई है। जैसे बच्चे भय मुक्त माहौल मे अच्छा सीखते है। बच्चे आपस मे एक दूसरे से बातचीत करके भी सीखते है। बच्चों को सबसे प्रिय काम खेलना लगता है। तो शिक्षक को चाहिए की खेल- खेल मे ही बच्चों को सिखाएं।बच्चे अनुकरण करके,सुनकर, देखकर व गलतियों से भी सीखते है। बच्चों को खुब सारे अवसर उपलब्ध करवाकर, खुद करके भी सीखते है।
अब बात करते है शिक्षक को क्या करना चाहिए? अपने विद्यालय मे की, बच्चे सीखने के लिए, शिक्षक से,अपने सहपाठियों से व अन्य बड़ी कक्षा के विद्यार्थियों से व परिजनों से मदद मांगने में झिझक, संकोच न करे।
तो इसके लिए सबसे जरूरी बातों में।पहली बात है – बच्चों का शिक्षक पर विश्वास।
जितना विश्वास होगा उतना ही डर कम होगा।डर कम होगा तो बच्चे शिक्षक से बातचीत,सवाल- जवाब करते है।
दूसरी बात- शिक्षकों को विधालय व कक्षाकक्ष में बालकों को हमेशा बच्चे है,ऐसा समझकर व्यवहार नही करना चाहिए।बल्कि एक व्यक्ति के रूप में पूर्ण इकाई समझकर ही अपनी बातचीत, व्यवहार करना चाहिए।
तीसरी बात-सबसे महत्त्वपूर्ण जो मुझे महसूस हुई वह है शिक्षकों का विधालय व अपने खुद के व्यतिगत जीवन में एक जैसा होना। बच्चे बहुत सारी बातें शिक्षको का समय पर आना,मुस्करा कर बातचीत करना, सहयोग,प्रेम, ईमानदारी आदि नैतिक मूल्य कब सीख जाते है, पता ही नही लगता है।
चौथी बात- बच्चों की गलतियों पर ज्यादा टोका टोकी करने से भी वह मदद मांगने से कतराने लग जाते है। इसलिए गलतियों मे भी अच्छाई ढुंढ़कर पहले उसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
पांचवी बात- प्रश्न या कोई भी चूनौति का जल्दी से उतर या हल शिक्षक को स्वयं न बताकर बच्चों को ही जूझने देना चाहिए।
जब उनको हल मिलता तो बेहद प्रसन्न व उनका सीखना पक्का होता है।शिक्षक को उतर बताने की जल्दीबाजी नही करनी चाहिए,जो अक्सर अधिकांश शिक्षक करते है।
छठी बात-बालको को समुह बनाकर बातचीत करने,चित्र बनाने, कविता कहानी आदि के काम शिक्षक को साथ मे रहकर करवाने से भी बालक आपस मे मदद मांगने मे झिझकते नही है।
सातवीं बात-शिक्षक को बच्चों की आपस में तूलना करने से भी बचना चाहिए जैसे यह बहुत होशियार है,यह तो ढ़फोल शंख आदि कारण भी बच्चों को प्रोत्साहित न करके हतोत्साहित करते है।
विधालय मे जाति, धर्म,जेण्डर, संवेदनशीलता,यौन उत्पीडन, अमीर-गरीब आदि विषयों पर खुलकर,ठहरकर शिक्षकों को बातचीत करनी चाहिए।जो अक्सर अधिकांश शिक्षक नही कर पाते है।
आठवीं बात-बालको को अपने तरीकों से काम करने की आजादी देने ही चाहिए।अपनी कमियों, गलतियों को भी बालक स्वयं ही खोजे,ऐसा माहौल, गतिविधियों के माध्यम से हम कर पाते हैं तो बच्चों मे आत्मनिर्भरता व जो ग्लानी का भाव आता है,जब दुसरा गलती बताता है।उसमे कमी आएगी।
नवीं बात-हर बच्चा सीख सकता है,हर अध्यापक सीखा सकता है।इस सोच को बच्चों के साथ काम करते समय शिक्षक को ध्यान में रखना चाहिए। बच्चों के बार बार पुछने पर झल्लाहट, चिड़चिड़ाहट व गुस्सा नही करना चाहिए।ऐसा करने से भी बच्चे मदद मांगना बंद कर देते है।
अंतिम बात-शिक्षक को बच्चों से बातचीत करते समय बच्चों को फाॅरमल्टी नही लगनी चाहिए।इसके लिए आप उनकी बात को बड़े ध्यान से,हाव भाव के साथ मतलब आपकी आंखें व शरीर की स्थिति बच्चों के साथ जुड़ी ही होनी चाहिए।ऐसा नही करने पर बच्चे धीरे धीरे मदद मांगना बंद कर देते है।
पुरी बात को मोटे-मोटे रूप से कहा जाए तो बच्चों व विधालय को अपना समझकर ही आप कार्य करेगे तो ही बच्चे आप से मदद भी मांगेंगे व अपनी मन की बात भी करेगे।
ऐसा करने वाले शिक्षकों की भी बच्चों मे,समाज में,एक अलग ही पहचान बनती है।