सुषमा त्रिपाठी
हाय रे इंसानियत तू अब तक सोती है,
तेरी करनी देख कर मानवता रोती है,
एक भूख की लाचारी से व्याकुल हो विचरती,
कानन से निकलकर गलियों में ठहरती,
निसहाय सी, निसर्ग हो बस एक नजर देखा ही था,
अतृप्त सी अलकावली उर भी उसका रिक्त था,
दो पग बढ़े उसकी तरफ
वो बढ़ चली उसकी तरफ…
हाथों में जिसके शान था
जिस पर उसे अभिमान था
रोटी निवाला दे रहे
देने का उसको गुमान था
हाय! रे मानव! क्या किया?
निज जाति कलंकित कर गया
वो मर कर भी अमर हुई
तू जीते जी ही मर गया….
तू जीते जी ही मर गया।
शिक्षिका, प्रा. वि. रुद्रपुर,
(खजनी, गोरखपुर)