अवध की शामों को गुलजार करने में रंगमंच की भूमिका भी कुछ कम नहीं है

आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट
अवध की शामों को गुलजार करने में रंगमंच की भूमिका भी कुछ कम नहीं है। लखनऊ में नाटकों की ऐतिहासिक परंपरा रही है। इसमें सिर्फ कोरी कल्पनाएं नहीं, चेतना का भाव भी शामिल है। शहर का रंगमंच समाज से संवाद करने को हमेशा तत्पर रहा है। ऊर्जा और समर्पण की बुलंद नींव पर आज भी ये मजबूती से अपनी उपयोगिता बनाए है। हालांकि शौकिया रंगमंच अब व्यावसायिक हो गया है। नई पीढ़ी रंगमंच को बॉलीवुड की सीढ़ी के तौर पर भी लेने लगी है। बावजूद इसके मंच पर राजधानी की कला के रंग चटख हैं…।
जुनून हुआ करता था
आर्ट और एंटरटेनमेंट में अंतर होता है। मनोरंजन बस टाइमपास के लिए होता है, जबकि आर्ट से हम जीने की कला सीखते हैं। आज ज्यादातर लोग थियेटर को मनोरंजन के तौर पर लेते हैं। वो जुनून नहीं दिखता जो पहले हुआ करता था। लखनऊ का रंगमंच तो सामूहिक प्रयासों से ही समृद्ध हुआ है, हर कोई अपनी भूमिका को बखूबी समझता था, मेहनत करता था। आज उन सामूहिक प्रयासों की कमी खलती है। जब हम लोग भगवद्अज्जुकीयम नाटक कर रहे थे, तो किसी को भी भरतनाट्यम नहीं आता था। नार्वे में शो होना था। छत पर रिहर्सल की। दो महीने तक भरतनाट्यम का अभ्यास किया। बिना म्यूजिक के पूरा प्ले तैयार हो गया, बाद में म्यूजिक रिकॉर्ड किया गया। थियेटर एक बहुत बड़ी विधा है। त्याग और मेहनत चाहिए होता है। 1989 की बात है। मुझे पर्दाफाश नाटक याद आता है। उस समय सांप्रदायिक एकता के लिए अयोध्या मार्च किया था। लखनऊ से अयोध्या पैदल पहुंचने में छह दिन लगे। इस सफर में गांव और चौराहों पर नुक्कड़ नाटक करते हुए चलते। वरिष्ठ कलाकार मृदुला भारद्वाज उन दिनों स्कूल भी संभालतीं फिर जैसे-तैसे नाटक की जगह पर पहुंच जातीं। हम सब लोगों ने इसी तरह मिलकर काम किया। विचार और कला के स्तर पर ये बहुत बड़ा काम लगता है। तब और अब तक रंगमंच में जो भी बड़े नाम निकले, उनके लिए रंगमंच रोजी-रोटी का जरिया कभी नहीं रहा। रोजी-रोटी कहीं और से चलती थी और रंगमंच पैशन था। अब लोग थियेटर में कॅरियर और कमाने के लिए आ रहे, इसे नाम कमाने की सीढ़ी समझ रहे।
लखनऊ का रंगमंच पिछले एक वर्ष बहुत सक्रिय रहा। दर्पण संस्था ने कुछ पुरानी प्रस्तुतियों के साथ उर्मिल थपलियाल के निर्देशन में स्वयं लिखित हे ब्रेख्त, हेमेंद्र भाटिया द्वारा लिखित व निर्देशित तुम और अश्विनी मक्खन के निर्देशन में कामता नाथ की कहानी देवी आगमन मंचित किया। टा ने राज बिसारिआ के निर्देशन में राकेश वेदा द्वारा अलेक्सी आर्बुज़ोव के नाटक द ओल्ड वर्ड का रूपांतरण विभास का मंचन किया। इस द्वि पात्रीय नाटक में मेरी पांच वर्ष बाद और शोभना जगदीश की लगभग 40 वर्ष बाद रंगमंच में वापसी हुई। टा ने राज बिसारिया स्टूडियो थिएटर में प्रफुल्ल त्रिपाठी लिखित व निर्देशित नाटक तिरोभूत के कई मंचन कर नई परंपरा शुरू की। सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ के निर्देशन में इरविन शा के नाटक बरी द डेड का मंचन लखनऊ के अलावा भारत रंग महोत्सव में भी हुआ।इसी प्रकार आतमजीत सिंह द्वारा निर्देशित नाटक मुंशीगंज गोलीकांड लखनऊ व भारत रंग महोत्सव दिल्ली में मंचित हुआ। नये नाटकों जिसमें मोहम्मद असलम द्वारा लिखित गुलाम रिश्ते ( निर्देशन राजा अवस्थी) , खिलानों की बरात ( निर्देशन ललित सिंह पोखरिआ) और केके अग्रवाल द्वारा प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित नाटक जीवन यात्रा जिसका निर्देशन उन्हीं ने किया । इसी क्रम में राजेश द्वारा लिखित नाटकों गांधी ने कहा था , मार पराजय , झोपड़पट्टी ,घर वापसी तथा फ्रेम्ड ऐज ए टेररिस्ट के मंचन हुए। इस बार थियेटर में दो नई परंपराएं शुरू हुईं। पहली संस्कृत नाटकों की, जिसमें शांति दूत और सीता परित्याग । दूसरी, पुनीत मित्तल के निर्देशन में नाटक वतन के वास्ते व खोज बरमबाकस की, जिसमें मॉडर्न डांस फार्म का प्रयोग किया गया । इस वर्ष शहर में कई नाट्य महोत्सव हुए जिसमें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा भारतेंदु नाट्य अकादमी के सहयोग से शीत कालीन नाट्य समारोह । अन्य समारोहों में स्वर्ण संगीत एवं नाट्य समिति, मदर सेवा संस्थान, आस्था नाट्य कला रंगमंडल समिति , अनादि सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था , रंग यात्रा, रेपर्टवा थिएटर फे स्टिवल, मंचकृति व हौसला फाउंडेशन द्वारा नाट्य समारोह हुए। आकांक्षा थिएटर आर्ट्स ने सात दिवसीय नाट्य समारोह किया । इस बार हालांकि लखनऊ नाट्य समारोह न हो सका पर विनोद मिश्रा के प्रयासों से एक सप्ताह का लखनऊ नाट्य समारोह हुआ। भारतेन्दु नाट्य अकादमी में अतिथि फैकल्टी व स्थानीय आमंत्रित निर्देशकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ किए गए नाटकों के मंचन जैसे मच मच गाड़ी, रंग यात्रा -अंधेर नगरी ( चित्रामोहन ) , खड़िया का घेरा ( सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ ) , संध्या काले प्रभात फेरी व मार पराजय ( मनोज शर्मा ) , थोड़ा थोड़ा गांधी ( प्रिवेंद्र सिंह पिनकुल ) , मैकबेथ ( जॉय माइसेम मितई ), बहती हवा में बह जाते पत्ते ( सी आर जाम्बे ), मेटामॉर्फोसिस उर्फ़ कायांतरण ( पार्थो बंदोपाध्याय ) व जलियांवाला बाग ( अशोक बंथिया ) ने लखनऊ रंगमंच की गति बनाए रखी। प्रदेश सरकार की स्वतंत्र सब्सिडी पाॅलिसी ने मुंबई के फिल्म, सीरियल व वेब सीरीज के निर्देशकों को उत्तर प्रदेश की तरफ आकर्षित किया। इससे एक तरफ तो कलाकारों की वृद्धि हुई दूसरी ओर नाटकों के स्तर में समझौते होने लगे। मेरा मानना है कि रंगमंच में अभिनय की निरंतर ट्रेनिंग इलेक्ट्रानिक माध्यम में बहुत सहायता करती है। यही कारण है कि लखनऊ के कलाकार जैसे अतुल श्रीवास्तव, राकेश श्रीवास्तव , मुकेश, मीणा नैथानी , ददिराज ,संदीप पाठक , राजू पण्डे, नीतू पांडे , ज्ञानेश्वर मिश्रा , महेश देवा , मो. सैफ , जिआ अहमद खान , उदय वीर सिंह , वरुण टम्टा, अजय सिंह आदि फिल्मों व वेब सीरीज में अपनी अच्छी पहचान बना रहे हैं।
रंग दीपन और मैं…
मेकअप ,कॉस्ट्यूम, संगीत और स्टेज क्राफ्ट के साथ ही लाइट यानी रंग दीपन बैक स्टेज की वह महत्वपूर्ण विधा है जो किसी भी नाटक की प्रस्तुति को समृद्ध करती है। 1973-74 की बात है। मैंने संकेत नाट्य संस्था ज्वाइन की थी। संकेत में तब अधिकतर नाटक केबी चंद्रा के निर्देशन में ही होते थे । वो स्टेज लाइटिंग के लिए दिल्ली से शिवेंद्र को बुलाते थे। दर्पण संस्था सहित अन्य नाट्य संस्थाओं की प्रस्तुतियों में स्टेज लाइटिंग के लिए कानपुर के पीर गुलाम को बुलाया जाता था । बाद में मैं संकेत नाट्य संस्था के लिए स्वतंत्र रूप से स्टेज लाइटिंग करने लगा। तब राज बिसारिया के निर्देशन में नाट्य मंचन होते रहते थे और उनके द्वारा भारतेंदु नाट्य अकादमी की स्थापना भी हो चुकी थी । उस समय लखनऊ में नाटकों के लिए एकमात्र रवींद्रालय प्रेक्षागृह ही था जहां आरंभ में नाटकों में उपयुक्त होने वाली लाइट्स जैसे पी सी, फ्रेजनल और बेबी आदि उपलब्ध थीं। उस समय पार लाइट्स उपयोग में नहीं लाई जाती थीं। इनके संचालन के लिए हैंडल वाले डिमर और रोटेटरी डिमर थे । काफी वर्षों बाद इन लाइट्स की उपलब्धता में कुछ दिक्कत आने लगी थी लेकिन सज्जन और शंकर सिंह की मदद से वह भी दूर हो जाती थी। तब संस्थाओं में भी उनके कलाकारों के बीच से ही स्टेज लाइट्स के कलाकार सामने आने लगे थे जैसे यायावर नाट्य संस्था के मो. हफीज और दर्पण लखनऊ के टीकाराम । पी के राय चौधरी भी, जो शायद सृष्टि संस्था से थे । इसके अतिरिक्त उस समय जो युवा नाट्य निर्देशक सामने आ रहे थे या फिर भारतेंदु नाट्य अकादमी से पास करके कलाकार बाहर आ रहे थे उनकी भी रुचि बैक स्टेज में विशेषकर स्टेज लाइटिंग में थी । पुनीत अस्थाना ,ललित पोखरिया और अरुण त्रिवेदी आदि। तमाल बोस भी इस विधा से जुड़े। बाद में मैं मंचकृत संस्था से भी जुड़ा। पिछले कुछ वर्षों में दर्पण लखनऊ की अनेक नाटक प्रस्तुतियों में स्टेज लाइट्स करने का अवसर मिला। नीपा रंग मंडली की सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ द्वारा निर्देशित नाट्य प्रस्तुति “बेगम और बागी” की स्टेज लाइट्स की जिम्मेदारी बखूबी निभायी, जिसके लखनऊ में मंचन के बाद 2005 में वर्ल्ड परफॉर्मिंग आर्ट फेस्टिवल पाकिस्तान और 2006 में भारत रंग महोत्सव में मंचन हेतु प्रतिभाग करने का अवसर मिला । 80 के दशक की शुरुआत में लखनऊ में दो नए प्रेक्षागृह स्थापित हुए- गन्ना संस्थान और गांधी भवन। 80 के दशक के अंत में लखनऊ रंगमंच को राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह मिला । छोटा लेकिन इंटीमेट थिएटर के रूप में सभी सुविधाओं से संपन्न यह प्रेक्षागृह नाटकों के लिए बहुत लोकप्रिय हुआ। उसके बाद वाल्मीकि रंगशाला , संत गाडगे जी महाराज प्रेक्षागृह और फिर भारतेंदु नाट्य अकादमी परिसर में स्थित बीएम शाह और थ्रस्ट ऑडिटोरियम मिला। अमूमन नाट्य मचंन के सफल और श्रेष्ठ होने पर उसके संपूर्ण आकलन के समय स्टेज लाइट के कलाकार की प्रतिभा और उसके योगदान को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस भावपूर्ण विडंबना से लखनऊ रंगमंच भी अछूता नहीं है।
– गोपाल सिन्हा, वरिष्ठ रंगकर्मी ( उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी सम्मान वर्ष 2006 : रंग दीपन )
सरोकारों में बदलाव का पड़ा असर
भारत में रंगमंच को एक शास्त्रीय परंपरा का रूप दिया गया था ताकि वेदों में वर्णित दर्शन और मूल्यों को दीर्घकाल तक जन-जन तक पहुंचाया जा सके। व्यक्ति और समाज के भीतर समय – समय पर उत्पन्न होने वाली दुष्प्रवृत्तियों, अमानवीयता और दुख के कारणों का चिंतन – मनन – विश्लेषण करते हुए मानवजाति को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया जा सके। न केवल भारत बल्कि पश्चिम जगत के रंगमंच ने भी अपने उद्भव काल से ही इन मूलभूत उद्देश्यों के लिए काम किया है। लखनऊ का रंगमंच भी अपने मूल्यों और सरोकारों के प्रति शुरू से ही सजग – समर्पित रहा है। लखनऊ में आधुनिक रंगमंच की शुरुआत स्वतंत्रता प्राप्ति के दशक से मानी जा सकती है। तब से लेकर आज तक लगभग सात – आठ दशक का समय बीत चुका है। इस अवधि में लखनऊ रंगमंच ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान दर्ज़ कराई है। हां, मूल्य, सरोकार और सृजनशीलता की दृष्टि से कई बार स्थिति चिंताजनक भी बनी। दरअसल मानव समाज के जीवन मूल्यों और सरोकारों में जो बदलाव आया है उसका दुष्प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र पर पड़ा है, रंगमंच भी इससे अछूता नहीं है। दूसरी बात यह है कि इसमें जो नयी पीढ़ी प्रवेश कर रही है उनका उद्देश्य कुछ और है। वह इसमें जीवन के भैतिक सुखों का स्वप्न त्वरित रूप से साकार होता देख रही है। उसके कार्य की प्रकृति और परिभाषा रंगमंच के मूल मल्यों और सरोकारों से भिन्न दिखाई पड़ती है। इसी परिदृश्य के बीच बड़े सुखद आश्चर्य की बात यह भी है कि लखनऊ रंगमंच में ऊर्जा और विचारों के धनी कुछ युवा अपने नाट्य प्रयोगों में जीवन की गहरी पड़ताल करते भी दिखाई पड़ रहे हैं।
– ललित सिंह पोखरिया, वरिष्ठ रंगकर्मी
शी…सेंचुरी बुड्ढा सदाबहार.
शी…सेंचुरी बुड्ढा नाटक ने मुझे एक अलग की पहचान दी, मुकाम दिया। आज भी लोग इस नाटक और किरदार को याद रखे हैं। बहुत ही कम समय में लगभग 80 हजार दर्शकों के समक्ष 89 बार खेला गया। प्रचार के नये, पुराने तरीकों का इस्तेमाल कर बार-बार दर्शकों को बताया गया कि नाटक जीवंत मनोरंजन है। सभी की मेहनत और अनुभव से एक परिपक्व नाट्य प्रस्तुति तैयार हुई। प्राय: कॉमेडी करने के चक्कर में रंगकर्मी भोड़ेपन का शिकार हो जाते हैं या अश्लीलता का सहारा लेते हैं, जबकि इस नाट्य प्रस्तुति में स्वस्थ मनोरंजन को केंद्र में रखा गया। ऐसे ही अन्य नाटकों में तुरूप चाल, सलीम शेरवानी की शादी, अंडर सेक्रेटरी उर्फ किराये का पति, एक बयान, बेहतर है मौत, गुस्ताखी माफ और द ग्रेट राजा मास्टर ड्रामा कंपनी को भी पसंद किया गया। हम बाल रंगमंच को भी बढ़ावा देते हैं। 1993 से लगातार बाल पर्व उल्लास का आयोजन हो रहा है। 243 कार्यशालाओं के जरिए पांच हजार से अधिक बच्चों को रंगमंचीय प्रशिक्षण दिया।
जरूरी हैं हास्य नाटक
1980 में मैंने पहला हास्य नाटक मिस आलूवालिया किया, जिसमें महिला पात्र का अभिनय और नाट्य निर्देशन खुद ही किया। आज भी ये नाटक बेहद चर्चित है, इसका पिछला शो मैंने 2015 में किया। हम धनोपार्जन के लिए नहीं, दर्शकों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए अपनी जीविका का कुछ अंश लगाकर रंगमंच करते थे। उस समय रंगमंच में समर्पण दिखता था। हर मंचन से पूर्व विचारों का आदान-प्रदान होता था, बहस होती थी, तब जाकर कोई प्रस्तुति जन्म लेती थी। सरकार ने अनुदान की प्रक्रिया ये सोचकर करी कि इससे रंगकर्मियों को आर्थिक सहायता मिलने के साथ ही रंगमंच का उत्थान होगा, लेकिन हुआ इसके विपरीत। मजबूरन सरकार को इस पर बंदिश लगानी पड़ी। मैंने अभी तक 80 से ज्यादा नाटकों में मुख्य भूमिका और 40 से ज्यादा नाटकों में निर्देशन किया। मंचकृति संस्था के तत्वावधान में 28 वर्ष तक बाबू हरदयाल वास्तव हास्य नाट्य समारोह का सफलतापूर्वक आयोजन किया, पर धनाभाव के कारण पिछले वर्ष से ये समारोह लखनऊ के दर्शकों के समक्ष नहीं आ पा रहा है। मुझे लगता है कि आज की तनाव युक्त जिंदगी में अगर आप हास्य का रंग भरेंगे तो दर्शक आपसे जुड़ते जाएंगे। मैंने हास्य नाटकों को अलग पहचान देने की कोशिश की है। रंगमंच की बेहतरी के लिए मंचकृति के तत्वावधान में 40 से अधिक गोष्ठियां लखनऊ ही नहीं, दिल्ली, जयपुर, बनारस, इलाहाबाद, आगरा, झांसी, नैनीताल, देहरादून आदि अनेक शहरों में आयाेजित कीं। 1975 में जब मैं रंगमंच से जुड़ा था, वही निष्ठा और ऊर्जा आज भी बरकरार है।
– संगम बहुगुणा, वरिष्ठ रंगकर्मी
रंगमंच दिवस की शुरुआत
विश्व रंगमंच दिवस की स्थापना 1961 में इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट द्वारा की गई थी। इस दिन को मनाने का उद्देश्य नाटकों के प्रति जागरूकता व नाटकों की मनोरंजन व मनुष्य के जीवन में बदलाव की भूमिका है। इस दिन का एक महत्त्वपूर्ण आयोजन अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संदेश है। 1962 में पहला अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संदेश फ्रांस की जीन काक्टे ने दिया था। 2002 में यह संदेश भारत के प्रसिद्ध रंगकर्मी स्व. गिरीश कर्नाड द्वारा दिया गया। इस बार का संदेश पाकिस्तान के अजोका थियेटर के प्रमुख शाहिद नदीम द्वारा दिया गया ।