परमेश्वर कमल की खास रिपोर्ट
गोरखपुर । लिटफेस्ट के चौथे सत्र में प्रसिद्ध गीतकार और कवि तनवीर ग़ाज़ी के साथ गुफ्तगू का आयोजन किया गया।
आयोजन समिति के डॉ. रजनीकांत श्रीवास्तव ने बतौर मॉडरेटर उनसे उनकी एक रचना सुनाने के आग्रह के साथ चर्चा की शुरुआत की जिसपर तनवीर ग़ाज़ी में अपनी प्रेरक रचना
‘तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश है
तू चल तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है’ सुनाई जिसे अमिताभ बच्चन ने स्वर दिया है।
उन्होंने अपने सफर की शुरुआत की कहानी बयां करते हुए बताया कि उनका बचपन गांव में तालाबों, खेतों और पेड़ पौधों के बीच बीता और वे गांव में अक्सर होने वाली कव्वालियों को सुनने जाते थे जहां से उन्हें ग़ज़लों और शेरो-शायरी की चस्का लगा। उनके पिताजी उन्हें रेसलर बनाना चाहते थे और इसी शौक में उन्होंने जूडो में ब्लैक बेल्ट भी हासिल किया, पर किस्मत में कलम से गीत लिखना बदा था सो वे मुम्बई चले आये। उन्होंने कहा कि उनका परिवार उनके इस फैसले के सख्त खिलाफ था और उनके मन में ख़ुदकुशी करने का ख्याल आया पर मैंने सोचा कि खुदकुशी से अच्छा है बग़ावत कर लें।
डॉ. रजनीकांत ने जब उनसे गीतों की रचना और धुन के सामंजस्य पर जब सवाल पूछा तो उन्होंने बताया कि पहले यह परम्परा थी कि पहले गीत लिख दिए जाते थे फिर उन्हें संगीतबद्ध किया जाता था पर आजकल संगीत पहले बना लिया जाता है और गीत उसके मुताबिक संवार दिया जाता है।
मंचीय कविता और किताबी कविता के बीच मौजूद साहित्यिक चुनौती के अभिषेक पांडेय के सवाल पर उन्होंने कहा कि कविता को दिल को छूने वाला होना चाहिए। मैं इसमें भेद नहीं मानता। कविता को बस कविता होना चाहिए और उसे खूबसूरत होना चाहिए।
नित्यानन्द शर्मा ने उनसे सवाल किया कि धुन पर कविता लिखना आसान है या कठिन। इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि यह सीखने पर और अभ्यास पर निर्भर करता है। जितना जल्दी आप सीखेंगे और बेहतर अभ्यास करेंगें वही आपके लिए आसानी पैदा करेगा।
डॉ. उत्कर्ष सिन्हा ने ‘ए भाई ज़रा देख के चलो…’ जैसे गानों के अचानक से किसी वाक़ये से पैदा हुए अल्फ़ाज़ों से लिखे जाने के वाक़ये का ज़िक्र करते हुए सवाल किया कि क्या आज भी ऐसे हालात हैं? इसपर उन्होंने कहा कि पुराने लोगों के पास वक़्त अधिक होता था और वे अपने काम को लेकर बहुत ज़्यादा गंभीर हुआ करते थे। आज के वक़्त में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आनन्द बख्शी और बर्मन साहब जैसी शैली की कमी है क्योंकि आज का समय हर चीज़ तेज़ और जल्दी करने पर ज़ोर देता है। इसलिए ऐसे वाक़ये से निकलने वाले गीत अब न के बराबर सामने आ रहे।
गीतों में उपमाओं के कम होते प्रयोग के डॉ. राजीव केतन के सवाल पर उन्होंने कहा कि आज केवल भाषा बदली है, अंदाज़ बदला है पर उपमाएं आज भी वैसी ही हैं।
इस मौके पर उनसे कनक हरि अग्रवाल, जावेद खान, सुधा मोदी, आतिफ हसन आदि दर्शकों ने सवाल पूछा। इस सत्र का संचालन मानवेन्द्र त्रिपाठी ने किया।
खूब चला शेरो शायरी का दौर
इस मौके पर तनवीर ग़ाज़ी ने अपने कुछ प्रसिद्ध शेर सुनाए जिनमें
‘उसकी आँखों में मुहब्बत की चमक आज भी है।
उसको हालांकि मेरे प्यार पर शक आज भी है।।
नाव में बैठ के धोए थे हाथ उसने।
सारे तालाब में मेंहदी की खुशबू आज भी है।।’ पर दर्शकों की वाहवाही गूंज पड़ी। इसके साथ ही उन्होंने
‘उसने हसीन आंखों पे चश्मा चढ़ा लिया।
छोटी सी कायनात पे पर्दा चढ़ा लिया।।
मेरे भी कदम रुक गए सिन्दूर देखकर।
उसने भी देखकर कर कार का शीशा चढ़ा लिया।।’ भी सुनाकर खूब दाद बटोरी।
जब पुराने गीत की धुन पर तुरन्त रच दिये नये बोल
दर्शकों रत्नेश तिवारी और सुमित कुमार की मांग पर तनवीर ग़ाज़ी ने ‘मेरे सामने वाली खिड़की पर एक चांद का टुकड़ा रहता है…’ गीत पर तुरन्त नए बोल ‘उस नाम का एक टैटू हमने, सीने पे बनाकर रखा है… ये भेद ज़रा सा पर्सनल है, दुनिया से छुपा कर रखा है… नाराज़ हुई है वो जबसे, दिल सुकड़ा सुकड़ा रहता है…’ बना दिया जिसे उन दर्शकों ने तुरन्त ही मंच पर स्वर में गाकर खूब तालियां बटोरीं।
संवेदना जगा गई कफ़न रीमिक्स
लिटफेस्ट के पांचवे सत्र में कथाकार पंकज मित्र ने सामाजिक कुरीतियों और आधुनिक आडम्बरों पर प्रहार करते हुए मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध रचना ‘कफ़न’ को आधार लेते हुए दो परिवर्तित पात्रों जी. राम और एम. राम के किरदारों से व्यवस्था पर चोट करने वाली लघुकथा का भावपूर्ण वाचन किया। उन्होंने कथा में पात्रों के संवादों को आंचलिक भावों के साथ सुनाया जिसका उपस्थित दर्शकों ने भरपूर लुत्फ उठाया।
मंत्रमुग्ध सभागार सुनता रहा शहज़ादी चौबोली की दास्तान
पहले दिन का अंतिम सत्र दास्तानगोई के नाम रही। दुनिया भर में दास्तानगोई की अपनी अनूठी शैली के लिए मशहूर किस्सागो महमूद फारूकी और दौरेन शाहिदी ने किस्सा शहज़ादी चौबोली का सुना शाम यादगार बना दी।
प्रस्तुति से पहले मशहूर चिकित्सक डॉ अजीज अहमद ने दास्तानगोई की परंपरा के बारे में दो शब्द कहे और उसके बाद मंच पर ये दोनों नामचीन कलाकार मौजूद थे।
महमूद फारूकी और दारेन शाहिदी ने चर्चित रचनाकार विजयदान देथा की कहानी- ‘चौबोली’ सुनायी, तो दर्शकों के सामने भाषा आड़े नहीं आयी। जाहिर है राजस्थानी लोक कहानी ‘चौबोली’ को आधार बनाकर ‘दास्तान शहजादी चौबोली’ की मंच पर प्रस्तुति होगी, तो लोक रंग और राग तो उसमें आयेंगे ही।
इस दास्तान में अमरबेल की तरह एक कहानी की डाल पर दूसरी, दूसरी के ऊपर तीसरी, तीसरी के ऊपर चौथी कहानी रची-बसी है और दर्शक-श्रोता की उत्सुकता इस बात को जानने में हमेशा रहती है कि आगे क्या? बीच बीच में दोनों कलाकार चुटीले अंदाज़ में दर्शकों और श्रोताओं को हंसाते भी रहे। रिझाते भी रहे। शाम निर्बाध बढ़ती रही। इस यादगार महफ़िल का बेहतरीन संचालन सुप्रसिद्ध उद्घोषक डॉ मुमताज़ खान ने किया। कलाकारों का अभिनंदन श्रीमती अरुणा यादव और डॉ त्रिलोक रंजन ने किया।