चर्चा ज्यादा, कमाई कम, क्या है पंगा ?

मुंबई से शामी एम इरफ़ान की फिल्म समीक्षा
बॉलीवुड में फिल्मों के मूल्यांकन करने का एक पुराना प्रचलन चला आ रहा है। यहां पर शुक्रवार को फिल्में प्रदर्शित होती हैं और रविवार को यानी तीसरे दिन फिल्म का वीकेंड कलेक्शन देखते हुए फिल्म के बारे में फिल्मी विशेषज्ञ हिट और फ्लॉप का दर्जा दे देते हैं। इस शुक्रवार को बॉलीवुड में हिंदी, अंग्रेजी मराठी गुजराती, भोजपुरी, बंगाली सभी भाषाओं की फिल्मों को मिलाकर लगभग एक दर्जन फिल्मेें सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई, जिसमें दो हिंदी फिल्में थी पंगा और स्ट्रीट डांसर। आज इस आलेख में बात करेंगे पंगा फिल्म की। पंगा फिल्म प्रदर्शन से पूर्व बहुत ज्यादा चर्चा में थी। इस फिल्म का कुल बजट ₹ 45 करोड़ बताया जाता है। यह फिल्म कुल 1900 स्क्रीन्स में प्रदर्शित हुई है। 450 स्क्रीन वर्ल्डवाइड और 1450 स्क्रीन देेेश के सिनेमाघरों में बताया जाा रहा है। जहां फिल्म का प्रदर्शन जारी है। इस फिल्म का वीकेंड बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ₹ ₹14.91 करोड़ मात्र हुआ है। जबकि रविवार को छुट्रटी और गणतंत्र दिवस का भी सार्वजनिक अवकाश भी था। इस फिल्म का प्रचार – प्रसार बहुत ज्यादा होने के बावजूद सििनेमाघरों में कमाई बहुत कम हुई, आखिर पंगा क्या है?
बता दें कि, पंगा फिल्म का निर्माण एक विदेशी कंपनी फॉक्स स्टार स्टूडियोज ने किया है। अश्विनी अय्यर तिवारी के निर्देशन में फिल्म निर्मित की गई है। इस फिल्म के मुख्य कलाकार हैं कंगना रनौत, ऋचा चड्ढा, जस्सी गिल, मेघा बर्मन, स्मिता तांबे, नीना गुप्ता, राजेश तेलंग आदि। इस फिल्म में कुछ ऐसे मुद्दे उठाए गये हैं, जो देश की नब्ज परखने का माद्दा रखते हैं। फिल्म को नए साल का नया सिनेमा भी कहा जा सकता है।
फिल्म की कहानी मध्य प्रदेश के राजधानी शहर भोपाल से जुड़ी है। भोपाल के रेलवे में काम करने वाली जया निगम (कंगना रानौत) की कहानी है। जिसकी उम्र 32 वर्ष है। परिवार में उसका पति प्रशांत श्रीवास्तव (जस्सी गिल) और 7 साल का एक बेटा आदित्य उर्फ़ आदी (यज्ञ भसीन) है। जया निगम को स्पोर्ट्स कोटे के द्वारा रेलवे में नौकरी मिली है और वह नौकरी ज्वाइन करने के लिए जब दिल्ली रेलवे कार्यालय मेंं जाती है। वहां उसकी मुलाकात रेलवे में कार्यरत इंजीनियर प्रशांत से होती है। मेल मुलाकात प्रेम आलाप में बदल जाती है और जया की मां उन दोनों को शादी करने की स्वीकृति दे देती है। चट मंगनी, पट ब्याह और फटाफट जया प्रेग्नेंट हो जाती है। बच्चे के पालन – पोषण की जिम्मेदारी निभाने के लिए जया खेलना बंद कर देती है। वह भोपाल में रेलवे की नौकरी कर रही है, उसका पति भी भोपाल में नौकरी कर रहा है और अपने 7 साल का बेटा के साथ मजे से रह रहे हैं। बेटा इस फिल्म में कुछ ज्यादा ही समझदार है, बुद्धिमान है। बेटा के कहने पर जया दोबारा कबड्डी खेलना शुरु करती है और अपना मुकाम हासिल करती है। फिल्म के शुरुआत में बेड पर प्रशांत और जया सो रहे हैं और जया प्रशांत को सोते-सोते लतियाती रहती है। अगले सीन में प्रशांत अपने हिप की सिकाई करता है तो, उसका 7 वर्षीय बेटा पूछता है, क्या पापा आज मम्मी ने फिर लात मारी क्या? पिता – पुत्र की दोस्ती होना अच्छी बात है, लेकिन 7 साल के बच्चे से जिस तरह पूरी फिल्म में संवाद बुलवाया गया है, वह अच्छा नहीं लगता। बच्चा जिस तरह से बातें करता है, वह दर्शकों को हजम होने वाली नहीं है।
बेटे के अरमान पूरे करने के लिए कबड्डी में वापस आई जया निगम को कबड्डी में अपनी भी खुशी दिखाई देने लगती है। लेकिन यह इतना आसान थोड़े ही है। रेलवे की टीम में चुने जाने के बावजूद सिर्फ अपने परिवार की देखभाल के लिए पीछे हटने को मजबूर जया का कहना है, ‘मैं एक मां हूं। एक मां को सपने देखने का कोई हक नहीं होता।’ कितना बड़ा और कड़वा सच है। हमारे समाज का जिसमें शादी के बाद ज़्यादातर पत्नियों और बच्चा होने के बाद ज़्यादातर मांओं से बस यही उम्मीद की जाती है कि वे चाहें तो घर चलाने को काम-धंधा भले ही कर लें, अपने सपनों, अपने अरमानों को उठा कर किचन के उसी सिंक में फेंक दें जिसमें रोज़ाना वे अपने परिवार के जूठे बर्तन धोती हैं। यह फिल्म इसी सच से जूूूझती एक आम औरत की कहानी दिखाती है। जया का पति महा-सप्पोर्टिव है। उसको जोरू का गुलाम बना दिया है। पटकथा में भारीपन, पैनापन, धार और रफ्तार बिलकुल नहीं है। पटकथा कमजोर है। इसको और भी खूबसूरती के साथ लिखा जा सकता था। संवाद ठीक-ठाक हैं। गीतों में जावेद अख्तर के शब्द असर छोड़ते हैं। शंकर एहसान लॉय ने मधुर संगीत रचना की है। जय पटेल ने बेहतरीन सिनेमाटोग्राफी की है। भोपाल की रेलेवे कॉलोनी की लोकेशन का उम्दा इस्तेमाल किया गया है। बल्लू सलूजा की एडिटिंग शार्प है। जिससे कमजोर पटकथा की फिल्म देखने में बोरियत महसूस नहीं होती।
फिल्म का क्लाइमैक्स दिल को छूता है। आंखें भी नम करता है। बेहतर होता कि, जया को कई मोर्चों पर कबड्डी खेलते और जीतते दिखाया जाता। तब डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी अपनी बात कह पाने में बेशक कामयाब रहती। कई बातें हैं, जिनकी वजह से फिल्म और दिलचस्प हो जाती। कदाचित इसी वजह से फिल्म को दर्शको का प्यार उतना नहीं मिल पाया, जितना फिल्मकारों ने उम्मीद की होगी। बुजुर्गों ने यूँ ही नहीं कहा कि, मर्द की कामयाबी में एक औरत का सहयोग होता है। किसी औरत की कामयाबी में एक मर्द का सपोर्ट भी होता है। अश्विनी अय्यर तिवारी को अपने कामयाब फिल्मकार पति जी से लेखन – निर्देशन सीखने की जरूरत है।
परफार्मेंस की बात करें तो, पूरी फिल्म कंगना रानौत के कन्धे पर है। उसको अपने किरदारों के अनुसार अभिनय करना आता है। हर किस्म के भाव को वह बखूबी दर्शा पाती हैं। उनके पति बने जस्सी गिल अपने किरदार के अनुसार खुलकर काम नहीं कर पाये। इन दोनों के बेटे की भूमिका में यज्ञ भसीन का काम सबसे ज़्यादा प्रभावी रहा है। बच्चे को बहुत बड़ा बना दिया गया है। कबड्डी कोच मीनू ऋचा चड्ढा, जया की माँ नीना गुप्ता, साथी खिलाड़ी निशा दास के रोल में मेघा बर्मन, सलैक्टर बने राजेश तैलंग के साथ सभी सपोर्टिग कलाकारों ने बढ़िया काम किया है।
फिल्म सिनेमाघरों में व्यवसाय करे या न करे। अगर अच्छी फिल्म देखने का मन है तो, खुद से पंगा लीजिये। एक बार देखकर दस बार ज़रूर कुछ सोचोगे। हो सकता है कि, आपके परिवार में और आपके जीवन में कोई नया बदलाव आ जाये।अगर कोई परिवर्तन नहीं भी होता, तो भी आपको फिल्म देखकर भरपूर मनोरंजन अवश्य प्राप्त होगा।
(वनअप रिलेशंस न्यूज डेस्क)