संवाददाता
हरिद्वार। हरिद्वार में एक ऎसा आश्रम है, जहां यज्ञशाला में 43 वर्षो से अखंड अग्नि प्रज्वलित हो रही है। यहां सुबह दो घंटे यज्ञ होते हैं और फिर लोहे के पट्टे से इसे ढक दिया जाता है। अगले दिन फिर सुबह पट्टे को हटाया जाता है, लक़डी रखी जाती है और अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। यहां आज तक माचिस का उपयोग नहीं किया गया। हरिद्वार में गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज में यह अखंड अग्नि प्रज्वलित है। भारत में अखंड अग्नि का महत्व सर्वाधिक है। साधु-संत सदियों से अखंड धुनि के सामने तप करते देखे जाते रहे हैं, लेकिन शांतिकुंज में बारह महीने हजारों श्रद्धालु दर्शनार्थी यहां दर्शन करने आते हैं। इसके साथ ही हजारों साधना प्रेमी गायत्री साधना के साथ-साथ धर्म-अध्यात्म व विभिन्न स्वावलंबन पर प्रशिक्षण के लिए आते हैं। ये सभी लोग गायत्रीतीर्थ परिसर के 27 कुंडीय यज्ञशाला में स्थापित इस अखंड अग्नि में रोज सुबह यज्ञाहुतियां प्रदान करते हैं तथा नौ दिवसीय जप अनुष्ठान की पूणार्हुति भी इसी अखंड अग्नि में आहुतियां समर्पित कर करते हैं। यज्ञ का समग्र कर्मकांड वेदोक्त मंत्रों द्वारा देवकन्याओं के स्वर में होता है। इन यज्ञकुंडों में अग्नि कभी प्रज्वलित नहीं करनी प़डती, बल्कि यहां अग्नि निरंतर प्रज्वलित रहती है। कहा जाता है कि लंबे समय तक जो अग्नि निरंतर प्रज्वलित रहती है, वह सिद्ध हो जाती है। उसके सामने पवित्र ह्वदय से जो भी कामना की जाती है, वह पूर्ण हो जाती है।
शांतिकुंज स्थित इस अग्नि के बारे में बताते हुए गायत्री परिवार प्रमुख डॉ. प्रणव पण्ड्या ने कहा कि गायत्री के सिद्ध महापुरूष पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी हिमालय में तप करने गए थे, तभी यह अग्नि देवात्मा हिमालय के किसी गुप्त गुहा के सिद्ध कुंड से उनके गुरूदेव सर्वेश्वरानंद द्वारा दी गई थी। सन् 1953 में गायत्री तपोभूमि मथुरा में इसकी स्थापना की गई और फिर 1974-75 में शांतिकुंज हरिद्वार में इसकी स्थापना हुई। वैसे तो श्रीराम शर्मा आचार्य जीवन भर इसके समक्ष साधनाएं करते रहे, किंतु विशेष व कठोर साधनाएं उन्होंने चौबीस वर्षो तक इसी सिद्धाग्नि के प्रतीक अखंड दीपक के सम्मुख पूरी की, जो चौबीस लाख गायत्री महामंत्र जप के चौबीस महापुरpण का महान अनुष्ठान है। इस दौरान वह केवल गाय के गोबर से निकले जौ से तैयार रोटी और छाछ पर निर्भर रहे थे। डॉ. पण्ड्या कहते हैं कि इसी अखंड अग्नि से अग्नि लेकर देश और विदेशों में महायज्ञों की शृंखलाएं चल प़डीं।
1958 का सहस्त्रकुंडी महायज्ञ हो या तमिलनाडु के कन्याकुमारी में इस सप्ताह के समापन में होने वाले गायत्री अश्वमेध महायज्ञ हो, इन सभी में इसी अग्रि का प्रयोग यज्ञकुंडों में किया गया है। हरिद्वार आने वाले या इन महायज्ञों में अपनी आहुतियां देने वाले अब तक करो़डों श्रद्धालु हैं, जिनमें दर्शनार्थियों से लेकर राजनैतिज्ञों व प्रशासनिक सचिवों तक की लंबी सूची है।