पर्यटन का सामुदयिक चूल्हा अगर खिचड़ी पका पाया, तो सैलानियों के लिए तत्तापानी जाने की वजह परवान चढ़ेगी और हिमाचल में लोहड़ी मनाने का उत्सव अंतरराष्ट्रीय हो जाएगा। त्योहार में पर्यटन की खूबियों को परिमार्जित करते अपने उद्देश्यों को विभाग इस बार तत्तापानी में परख रहा है, जहां खिचड़ी पकाने का उत्सव अपने साथ रिकार्ड की महक से सराबोर होना चाहता है। यानी पन्द्रह सौ किलो सामग्री से भरपूर खिचड़ी एक ही बार और एक ही कनस्तर से उतरेगी, तो आस्था का यह कुंभ करीब पच्चीस हजार लोगों को परंपरागत पकवान परोसेगा। यहां पर्यटन निगम के रसोइए अपने कौशल को अंजाम देंगे, तो तत्तापानी का आयोजन एक खास मंजिल की तरह खुद को स्थापित करेगा। हालांकि इससे पूर्व खिचड़ी गरली-परागपुर में भी पकी और उत्सव के माहौल में जश्न की पांत लग गई, लेकिन हाय री सियासत, वहां लोहड़ी जलाने के लिए तैयार हुए खास तरह के बड़े-बड़े गीठे बुझ गए। यह समारोह भी पर्यटन विभाग की ही देन था और प्रेम कुमार धूमल के मुख्यमंत्रित्व के दौर में इसकी चर्चा से एक सकारात्मक माहौल बना। आश्चर्य यह है कि वहां से लोहड़ी छीन कर ज्वालामुखी में पहुंचने का श्रेय जैसा काम तत्कालीन वीरभद्र सिंह सरकार ने किया। रंज भी यही है कि विभागीय प्राथमिकताएं भी सत्ता के छोर ढूंढती हैं। फिलहाल तत्तापानी की खिचड़ी के साथ हिमाचली पर्यटन की उम्मीदें, नवाचार तथा रिकार्ड जुड़ा है और अगर इसे सफल बना कर विभाग कुछ कर दिखाता है, तो यह सैलानियों के कैलेंडर का विस्तार ही होगा। तत्तापानी में लोहड़ी की हांडी पूरे विश्व के रिकार्ड की साधना व समीक्षा भी है। सात साल पहले कोस्टा रीका में 52 रसोइयों व उनके बीस सहायकों ने एकमुश्त फ्राइड चावल पकाने का जो रिकार्ड बनाया, उसे घाना में पके करीब तीन क्विंटल चावलों ने छोटा कर दिया। ऐसे में भारतीय खिचड़ी का बड़ा पतीला चढ़ा कर हिमाचल एक साथ कई कारनामे कर सकता है और कल अगर प्रदेश के मंदिरों की रसोइयां भी नए अवतार में पेश हों, तो भगवान जगन्नाथ के 56 भोगों जैसा नजारा सारी व्यवस्था का पारखी बन सकता है। यह धार्मिक अचंभा है, जो अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की विश्व भर में सबसे बड़ी रसोई का मूल्यांकन करते हुए एक लाख लोगों के लंगर को अचूक सेवा भाव से जोड़ता है। बहरहाल पर्यटन की नई कसरतों में आगुंतक की तरह खिचड़ी का त्योहार उपहार बन कर आ रहा है, तो इस चुनौती को स्वीकार करके विभाग ने अपनी छवि को मांजने का प्रयास भी किया है।
त्योहार में पर्यटन का यह स्वरूप निश्चित तौर पर कई अन्य अवसरों को अलग ढंग से पेश करने का अवसर देता है। पर्यटन विभाग अगर दियोटसिद्ध मंदिर में प्रसाद के रूप में विकसित रोट का पेटेंट करा कर इसे हिमाचली उत्पाद बना दे, तो आस्था की आर्थिकी का निरूपण होगा। रोट के साथ पर्यटन उत्पाद की संभावना को जोड़ने की जरूरत है, तो इसे हिमाचली तोहफे के रूप में हर मंदिर परिसर में उपलब्ध कराया जा सकता है। प्रदेश की धार्मिक परंपराओं के साथ ऐसे अनेक उत्सव जोड़े जा सकते हैं, जबकि लोहड़ी और मकरसंक्रांति के संदर्भों में कांगड़ा के बज्रेश्वरी तथा बैजनाथ शिवमंदिर में घृतमंडल का सृजनात्मक पक्ष अपने साथ अनूठी परंपरा का सौंदर्य पक्ष भी सामने रखता है। क्विंटलों देशी घी को मक्खन के नए अवतार में अवतरित करती प्रक्रिया और फिर पिंडियों पर इसकी सजावट में रूपांतरित श्रद्धा का प्रत्यक्ष प्रतीकों में प्रमाणित होना, एक बड़े समारोह की प्रतिध्वनि है। जाहिर है हिमाचल में लोहड़ी और मकर संक्रांति के साथ पर्यटन आकर्षण की खास परंपराएं भी मौजूद हैं, बस इन्हें प्रचारित और प्रसारित करने की आवश्यकता है।